Life Prediction / सम्पूर्ण कुण्डली फल
Life Prediction / सम्पूर्ण कुण्डली फल
संपूर्ण भविष्यफल रिपोर्ट एक ऐसा रिपोर्ट है जिसमें किसी व्यक्ति के भविष्य के विषय में संपूर्ण जानकारी दी गयी होती है। इस व्यापक जीवन रिपोर्ट द्वारा आप अपने वर्तमान भविष्यफल, मंगल दोष विश्लेषण, शनि साढ़े साती विश्लेषण, विंशोतरी दशाफल, गोचर फल, लाल किताब भविष्यफल उपाय जैसी चीज़ों के बारे में जान सकते हैं।
आज की इस भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में लोगों का जीवन बेहद तनावपूर्ण है। करियर, घर-परिवार, प्रेम और पारिवारिक मामलों समेत अनेक मसले व्यक्ति को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से प्रभावित करते रहते हैं। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हम सभी के लिए एक शांतिपूर्ण जीवन की कल्पना लगातार मुश्किल होती जा रही है और यह सब इसलिए क्योंकि लोग लगातार अपने भविष्य को अच्छा करने की कोशिश में जुटे हुए हैं। जरा सोचिये कि यदि हमें यह पता चल जाये कि हमारा आने वाला कल कैसा होगा तो हम पहले से ही हर परिस्थिति के लिए तैयार हो जाएंगे।
यह संपूर्ण भविष्यफल रिपोर्ट आपके नक्षत्रों और ग्रहों की दशा को देख कर तैयार की जाती है जो आपकी पूरी ज़िन्दगी में ग्रहों, दोषों, दशाएं आदि का प्रभाव कब-कब होगा इन सभी बातों की जानकारी देता है। इस रिपोर्ट में तालिकाओं की मदद से आपको ग्रहों के गोचर और उनकी गति आदि के विषय में समझाया गया है।
आपकी ज़िन्दगी में तारों, ग्रहों व नक्षत्रों की चाल की कैसी रहेगी और आपके जीवन में इसका कैसा प्रभाव रहेगा, इन सभी बातों को आप हमारे संपूर्ण भविष्यफल रिपोर्ट की मदद से जान सकते हैं। कोई व्यक्ति जीवन में क्या व्यवसाय शुरू करेगा, काम-धंधे में कब वृद्धि के योग हैं और कब आमदनी बढ़ेगी, कब सेहत अच्छा रहेगा, कब बुरा रहेगा, कब विपदा आएगी तो कब खुशहाली सभी कुछ होता है इस संपूर्ण जीवन रिपोर्ट में।
भविष्यफल जानने के लाभ
मनुष्य अपने भविष्य को जानने के लिए हमेशा ही उत्सुक रहता है। हर व्यक्ति अपने भविष्य के विषय में जानना चाहता है क्योंकि इस दुनिया में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जिसे किसी प्रकार की कोई समस्या न हो। हम सब किसी न किसी समस्या से घिरे हुए हैं। किसी को स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानी है तो किसी को पारिवारिक, कोई बच्चा न होने से परेशान है तो वहीं किसी की शादी में देरी हो रही है। इसके अलावा भी अनेकों चिंताए सताती रहती है कि हमारे जो काम अटके हुए हैं वो कब पूरे होंगे, अच्छे दिनों की शुरुआत कब से होगी, बूरा समय कब खत्म होगा।
इन्हीं सब समस्याओं के समाधान के लिए हर इन्सान अपना भविष्य जानने की कोशिश में लगा रहता है। सबका भविष्य जानने का अपना अलग तरीका है। कोई ग्रह नक्षत्र की मदद से भविष्य बताता है तो कोई आपकी हथेली की रेखाओं को देखकर भविष्य का अंदाज़ा लगाता है। कोई मात्र चेहरा देखकर ही भविष्यवाणी कर देता है तो कोई टैरो कार्ड्स द्वारा भविष्य बताता है।
कई लोग भविष्य जानने के लिए ढोंगी पंडितो ,ज्योतिषों और सिद्ध बाबाओं के चक्कर लगाते रहते है जिसमें वे न केवल अपना पैसा बल्कि अपना समय भी बर्बाद करते हैं। इसीलिए एस्ट्रोसेज ने आप सभी लोगो के लिए इस संपूर्ण भविष्यफल रिपोर्ट की शुरुआत की जो चंद्र मिनटों के भीतर ही की हर एक जानकारी आपको मुहैया करता है।
यह सम्पूर्ण भविष्यफल रिपोर्ट हमें हमारे आने वाले कल की एक झलक प्रदान करता है। इससे हम अपने कल में झांक सकते हैं साथ ही आने वाली सभी परिस्थितियों के लिए खुद को तैयार भी कर सकते हैं।
...Monthely Horoscope / मासिक राशिफल
मासिक राशिफल / Monthly Horoscope
मासिक राशिफल का मतलब है राशि के आधार पर की गई पूरे महीने की भविष्यवाणी। इस भविष्यकथन को लोग अंग्रेजी में Monthly Horoscope भी कहते हैं। मासिक राशिफल एक व्यक्ति को राशि की मदद से उसके आने वाले 30 दिनों की जानकारी प्रदान करता है। कुछ लोग मासिक राशिफल को मासिक फलादेश भी कहते हैं। यह पूरे महीने के राशि चक्र के आधार पर व्यक्ति के भविष्य अर्थात उसके अच्छे और बुरे दिनों की गणना होती है।
मासिक राशिफल क्यों है जरूरी है ?
हमारे समाज में हर तरह के लोग रहते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो राशिफल पर विश्वास करते हैं तो वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें राशि और इनसे जुड़ी बातों पर यकीन नहीं होता है। आपको बता दें कि दैनिक राशिफल, साप्ताहिक राशिफल या फिर मासिक राशिफल एक ऐसी गणना होती है जो किसी व्यक्ति की राशि में आने वाले दिन, सप्ताह, महीने में नक्षत्रों, ग्रहों, सूर्य-चंद्र की दशा आदि को देख कर की जाती है।
राशिफल का फलादेश ज्योतिषीय गणनाओं पर निर्धारित किया जाता है, जिसमें किसी व्यक्ति के वर्तमान और भविष्य की जानकारी खगोलीय घटनाओं के आधार पर दर्शायी गयी होती है। इन खगोलीय पिंडों का गहन अध्ययन ही किसी व्यक्ति के जीवन में प्रभाव और दुष्प्रभावों को बतलाता है। जिसकी गणना करते वक़्त व्यक्ति के गोचर के ग्रहों की स्थिति को भी ध्यान में रखा जाता है। जैसे कि चन्द्रमा किस राशि में है या फिर कौन सा ग्रह किस चाल में है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एक साल में 12 महीने और एक महीने में 30 दिन होते हैं। महीने की शुरुआत से ही लोग आने वाले 30 दिनों कि प्लानिंग शुरू कर देते हैं। उन्हें इस बात कि जिज्ञासा होती है कि उनका वह महीना कैसा गुज़रेगा। ऐसे में मासिक राशिफल उनके लिए भविष्यवाणी का काम करता है।
मासिक राशिफल का लाभ
आज के परिवेश में लोग वर्तमान से ज्यादा भविष्य के बारे में सोचते हैं। लोगों को आज की चिंता नहीं होती, उन्हें यह बात परेशान करती है कि आने वाला समय आखिर कैसा होगा? मासिक राशिफल या भविष्यफल हमें हमारे पूरे महीने की आने वाली परेशानियों, स्वास्थ सम्बन्धी समस्याओं, लाभ, हानि, यात्रा, सम्पत्ति, परिवार आदि जैसी चीज़ों से जुडी जानकारी देता है। ज़रा सोचिये कि अगर किसी व्यक्ति को अगले 30 दिनों की जानकारी पहले ही हो जाये तो वह आने सारी बुरी परिस्थितियों के लिए पहले ही मानसिक तौर पर खुद को तैयार कर लेगा। साथ ही पूरी मेहनत और लगन के साथ अपने जीवन में आगे बढ़ने और अपनी कार्य को गति देने का प्रयास करेगा।
जैसा कि हम सब जानते हैं कि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कुल 12 राशियाँ होती हैं – मेष,वृष,मिथुन,कर्क,सिंह,कन्या,तुला,वृश्चिक,धनु,मकर,कुम्भ और मीन। इन सभी राशियों की अपनी कमजोरियां, ताकत, गुण, लोगों के प्रति रवैया और इच्छा होती है। ज्योतिष शास्त्र के माध्यम से किसी भी इन्सान के जन्म के समय ग्रहों की स्थिति का आंकलन कर उसकी प्राथमिकताओं, जरूरतों और कमियों आदि के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। राशियों की ये बुनियादी विशेषताएं हमें और बेहतर तरीके से लोगों को जानने में मदद करती है।
...Daily Horoscope / दैनिक राशिफल
दैनिक राशिफल / Daily Horoscope
राशियाँ
राशियां राशि चक्र के उन बारह बराबर भागों को कहा जाता है जिन पर ज्योतिषी आधारित है। हर राशि सूरज के क्रांतिवृत्त (ऍक्लिप्टिक) पर आने वाले एक तारामंडल से सम्बन्ध रखती है और उन दोनों का एक ही नाम होता है - जैसे की मिथुन राशी और मिथुन तारामंडल। यह बारह राशियां हैं :-
- मेष राशि
- वृष राशि
- मिथुन राशि
- कर्क राशि
- सिंह राशि
- कन्या राशि
- तुला राशि
- वृश्चिक राशि
- धनु राशि
- मकर राशि
- कुम्भ राशि
- मीन राशि
इन बारह तारा समूह ज्योतिष के हिसाब से महत्वपूर्ण हैं। यदि पृथ्वी, सूरज के केन्द्र और पृथ्वी की परिक्रमा के तल को चारो तरफ ब्रम्हाण्ड में फैलायें, तो यह ब्रम्हाण्ड में एक तरह की पेटी सी बना लेगा। इस पेटी को हम १२ बराबर भागों में बांटें तो हम देखेंगे कि इन १२ भागों में कोई न कोई तारा समूह आता है। हमारी पृथ्वी और ग्रह, सूरज के चारों तरफ घूमते हैं या इसको इस तरह से कहें कि सूरज और सारे ग्रह पृथ्वी के सापेक्ष इन १२ तारा समूहों से गुजरते हैं। यह किसी अन्य तारा समूह के साथ नहीं होता है इसलिये यह १२ महत्वपूर्ण हो गये हैं। इस तारा समूह को हमारे पूर्वजों ने कोई न कोई आकृति दे दी और इन्हे राशियां कहा जाने लगा।
चन्द्र राशि
जन्म कुण्डली में चन्द्रमा जिस राशि में स्थित होता है, वह राशि चन्द्र राशि होती है। इसे जन्म राशि के नाम से भी जाना जाता है। वैदिक ज्योतिष में सभी ग्रहों में सबसे अधिक महत्व चन्द्र को ही दिया गया है। इसे "नाम राशि" की संज्ञा भी दी जाती है। क्योंकि ज्योतिष के अनुसार बालक का नाम रखने का आधार यही चन्द्र राशि होती है। जन्म के समय चन्द्र जिस नक्षत्र में स्थित होता है। उसके चरण के वर्ण से आरम्भ होने वाला नाम व्यक्ति का जन्म राशि नाम निर्धारित करता है। आईये चन्द्र राशि को समझने का प्रयास करते हैं।
चन्द्र राशि का महत्व
चन्द्र मन के कारक ग्रह माने गये हैं। इसलिये मन को नियन्त्रित करने का कार्य चन्द्र के द्वारा किया जाता है। मन चिन्तामुक्त हो तो व्यक्ति को हर स्थान पर सुख- शान्ति का अनुभव होता है। इसके विपरीत अगर मन दु:खी हों, तो उतम से उतम भोग- विलास की वस्तुओं भी आराम नहीं दे पाती. वैसे भी वैदिक ज्योतिष में [[चन्द्र राशि, चन्द्र नक्षत्र, चन्द्र स्थित भाव को शुरु से अन्य सभी योगों की तुलना में कुछ खास ही महत्व दिया जाता है।
चन्द्र राशि के उपयोग
यूं तो ज्योतिष में नौ ग्रह है। पर व्यक्ति की जन्म राशि का स्वामी चन्द्र ही होता है। सामान्यत: दैनिक राशिफल चन्द्र राशि आधारित होता है। विवाह के समय वर- वधू की कुण्डली का मिलान करने के लिये भी जन्म राशि का प्रयोग किया जाता है।
चन्द्र राशि को इतना अधिक महत्व क्यों दिया गया है। यह जानने के लिये हमें प्राचीन काल की स्थिति को समझते हुए, वहां प्रवेश करना होगा। प्राचीन काल में बालक के जन्म समय की गणना करने संबन्धी उपकरण सरलता से उपलब्ध नहीं थें. इसलिये घंटों से अधिक दिवस को ही मुख्य माना जाता था। अब क्योंकि चन्द्र एक राशि को लगभग सवा दो दिन में बदलता है। ऎसे में चन्द्र की महत्वता बढ गई। तथा इससे लग्न की महत्वता गौण हो गई। वैसे भी अन्य सभी ग्रहों की तुलना मे चन्द्र सबसे अधिक गतिशील ग्रह है। यह व्यक्ति के जीवन की घटनाओं को अत्यधिक प्रभावित करता है।
जन्म राशि/ नाम राशि का उपयोग
जन्म राशि के अनुसार आने वाले वर्ण के आधार पर अपने निवासस्थल का नाम, आजीविका स्थल का नाम या व्यापार का नाम रखना शुभ माना जाता है। कई बार नाम के आधार पर ही वर-वधू का विवाह निश्चित कर दिया जाता है। प्राचीन काल में प्रचलित 16 संस्कारों में से जिन कुछ संस्कारों को आज भी प्रयोग में लाया जाता है। उनमें नामकरण संस्कार एक है। इस संस्कार में बालक का नाम चन्द्र राशि के नक्षत्र के वर्ण के आधार पर किया जाता है।
ज्योतिष में विश्वास रखने वाले सभी व्यक्तियों के लिये चन्द्र राशि आज के जीवन का अभिन्न अंग बन गई है। जो नामकरण संस्कार से लेकर जीवन भी किसी न किसी रूप में उसके साथ रहती है। फिर वह चाहे घर से निकलने से पहले पढा जाने वाला राशिफल ही क्यों न हों।
...Vastu Cosultant / वास्तु परामर्श
वास्तु शास्त्र / Vastu
वास्तु पुरुष की अवधारणा
संस्कृत में कहा गया है कि... गृहस्थस्य क्रियास्सर्वा न सिद्धयन्ति गृहं विना। वास्तु शास्त्र घर, प्रासाद, भवन अथवा मंदिर निर्मान करने का प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के विज्ञान आर्किटेक्चर का प्राचीन स्वरुप माना जा सकता है। जीवन में जिन वस्तुओं का हमारे दैनिक जीवन में उपयोग होता है उन वस्तुओं को किस प्रकार से रखा जाए वह भी वास्तु है वस्तु शब्द से वास्तु का निर्माण हुआ है
डिजाइन दिशात्मक संरेखण के आधार पर कर रहे हैं। यह हिंदू वास्तुकला में लागू किया जाता है, हिंदू मंदिरों के लिये और वाहनों सहित, बर्तन, फर्नीचर, मूर्तिकला, चित्रों, आदि।
दक्षिण भारत में वास्तु का नींव परंपरागत महान साधु मायन को जिम्मेदार माना जाता है और उत्तर भारत में विश्वकर्मा को जिम्मेदार माना जाता है।
वास्तुशास्त्र एवं दिशाएं
उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं। वास्तु विज्ञान में इन चार दिशाओं के अलावा 4 विदिशाएं हैं। आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है। इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस माना गया है। मूल दिशाओं के मध्य की दिशा ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य को विदिशा कहा गया है।
वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा
वास्तुशास्त्र में यह दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं। भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए। यह सुख और समृद्धि कारक होता है। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं। परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं। उन्नति के मार्ग में भी बाधा आति है।
वास्तुशास्त्र में आग्नेय दिशा
पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेश दिशा कहते हैं। अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशांत और तनावपूर्ण रहता है। धन की हानि होती है। मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है। यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वास्थ रहते हैं। इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है। अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है।
वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशा
इस दिशा के स्वामी यम देव हैं। यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होता है। इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना होता है। गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है।
वास्तुशास्त्र में नैऋत्य दिशा
दक्षिण और पश्चिक के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं। इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है। यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए। इस दिशा का स्वामी राक्षस है। यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है।
वास्तुशास्त्र में ईशान दिशा
ईशान दिशा के स्वमी शिव होते है, इस दिशा में कभी भी शोचालय कभी नहीं बनना चाहिये!नलकुप, कुआ आदि इस दिशा में बनाने से जल प्रचुर मात्रा में प्राप्त होत है
विश्लेषण
वास्तु पुरुष की कल्पना भूखंड में एक ऐसे औंधे मुंह पड़े पुरुष के रूप में की जाती है, जिसमें उनका मुंह ईशान कोण व पैर नैऋत्य कोण की ओर होते हैं। उनकी भुजाएं व कंधे वायव्य कोण व अग्निकोण की ओर मुड़ी हुई रहती है। मत्स्यपुराण के अनुसार वास्तु पुरुष की एक कथा है। देवताओं और असुरों का युद्ध हो रहा था। इस युद्ध में असुरों की ओर से अंधकासुर और देवताओं की ओर से भगवान शिव युद्ध कर रहे थे। युद्ध में दोनों के पसीने की कुछ बूंदें जब भूमि पर गिरी तो एक अत्यंत बलशाली और विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई उस विराट पुरुष नें पूरी धरती को ढक लिया उस विराट पुरुष से देवता और असुर दोनों ही भयभीत हो गए। देवताओं को लगा कि यह असुरों की ओर से कोई पुरुष है। जबकि असुरों को लगा कि यह देवताओं की तरफ से कोई नया देवता प्रकट हो गया है। इस विस्मय के कारण युद्ध थम गया और उसके बारे में जानने के लिए देवता और असुर दोनों ने उस विराट पुरुष को पकड़ कर ब्रह्मा जी के पास ले गए। उसे उनलोगों ने इस लिए पकड़ा की उसे खुद ज्ञान नहीं था कि वह कौन है क्यों कि वह अचानक उत्पन्न हुआ था उस विराट पुरुष नें उनके पकड़ने का विरोध भी नहीं किया फिर ब्रह्मलोक में ब्रह्मदेव के सामने पहुंचने पर उनलोगों नें ब्रह्मदेव से उस विराट पुरुष के बारे में बताने का आग्रह किया। ब्रह्मा जी ने उस बृहदाकार पुरुष के बारे में कहा कि यह भगवान शिव और अंधकासुर के युद्ध के दौरान उनके शरीर से गिरे पसीने की बूंदों से इस विराट पुरुष का जन्म हुआ है इसलिए आप लोग इसे धरती पुत्र भी कह सकते हैं। ब्रह्मदेव ने उस विराट पुरुष को संबोधित कर उसे अपने मानस पुत्र होने की संज्ञा दी और उसका नामकरण करते हुए कहा कि आज से तुम्हे संसार में वास्तु पुरुष के नाम से जाना जाएगा। और तुम्हे संसार के कल्याण के लिए धरती में समाहित होना पड़ेगा अर्थात धरती के अंदर वास करना होगा मैं तुम्हे वरदान देता हूँ कि जो भी कोई व्यक्ति धरती के किसी भी भू-भाग पर कोई भी भवन, नगर, तालाब, मंदिर, आदि का निर्माण कार्य तुम को ध्यान में रखकर करेगा उसको देवता कार्य की सिद्धि, संवृद्धि और सफलता प्रदान करेंगे और जो कोई निर्माण कार्य में तुम्हारा ध्यान नहीं रखेगा और अपने मन कि करेगा उसे असुर तकलीफ और अड़चने देंगे। साथ हि जो भी निर्माण कार्य के समय पूजन जैसे- भूमिपूजन, देहलीपुजन, वास्तुपूजन के दौरान जो भी होम-हवन नैवेद्य तुम्हारे नाम से चढ़ाएगा वहीं तुम्हारा भोजन होगा।
ऐसा सुनकर वह वास्तुपुरुष धरती पे आया और ब्रह्मदेव के निर्देशानुसार एक विशेष मुद्रा में धरती पर बैठ गया जिससे उसकी पीठ नैऋत्य कोण व मुख ईशान्य कोण में था इसके उपरांत वह अपने दोनों हांथो को जोड़कर पिता ब्रह्मदेव व धरतीमाता(अदिति) को नमस्कार करते हुए औंधे मुंह धरती में सामने लगा उसको इस तरह धरती में समाने में विराट होने की वजह से हो रही मुश्किलों की वजह से देवताओं व असुरों ने उसके अंगों को जगह-जगह से पकड़कर उसे धरती में सामने में उसकी मदत की । अब जिस अंग को जिस देवता व असुर नें जहां से भी पकड़ रखा था आगे उसी अंग-पद में उसका वास अथवा स्वामित्व हुआ।
देवताओं ने वास्तु पुरुष से कहा तुम जैसे भूमि पर पड़े हुए हो वैसे ही सदा पड़े रहना और तीन माह में केवल एक बार ही दिशा बदलना।
उपर्युक्त तथ्यों को देखते हुए हमे किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य वास्तु के अनुरूप ही करना चाहिए।
अगर वास्तुपुरुष की इस औंधे मुंह लेटी हुई अवस्था के अनुसार भूखंड की लंबाई और चौड़ाई को 9-9 भागों में बांटा जाए तो इस भूखंड के 81 भाग बनते हैं जिन्हें वास्तुशास्त्र में पद कहा गया है जिस पद पर जो देवता वास करते हैं उन्हीं के अनुकूल उस पद का प्रयोग करने को कहा गया है। वास्तुशास्त्र में इसे ही 81 पद वाला वास्तु पुरुष मंडल कहा जाता है।
निवास के लिए गृह निर्माण में 81 पद वाले वास्तु पुरुष मंडल का ही विन्यास और पूजन किया जाता है। समरांगण सूत्रधार के अनुसार वास्तु पुरुष मंडल में कुल 45 देवता स्थित है। जिसमे मध्य के 9 पदों पर ब्रह्मदेव स्वयं स्थित हैं।
ब्रह्म पदों के चारो ओर 6-6 पदों पर पूर्व में अर्यमा( आदित्य देव ), दक्षिण में विवस्वान( मृत्युदेव ), पश्चिम में मित्र ( हलधर ) तथा उत्तर में पृथ्वीधर ( भगवान अनंत शेषनाग ) स्थित हैं। ये मध्यस्थ देव हैं।
ठीक इसी प्रकार मध्यस्त कोणों के भी देव हैं- ईशान्य में आप( हिमालय ) और आपवत्स( भगवान शिव की अर्धांगिनी उमा ), आग्नेय में सविता ( गंगा ) एवं सावित्र( वेदमाता गायत्री ) नैऋत्य में जय( हरि इंद्र ) तथा वायव्य में राजयक्ष्मा( भगवान कार्तिकेय ) और रुद्र( भगवान महेश्वर ) जो एक-एक पदों पर स्थित हैं।
फिर वास्तुपुरुष मंडल के बाहरी 32 पदों के देव हैं – शिखी( भगवान शंकर ), पर्जन्य(वर्षा के देव वृष्टिमान), जयंत( भगवान कश्यप ), महेंद्र( देवराज इंद्र ), रवि( भगवान सूर्यदेव ), सत्य( धर्मराज ), भृश( कामदेव ), आकाश( अंतरिक्ष-नभोदेव ), अनिल( वायुदेव-मारुत ), पूषा( मातृगण ), वितथ( अधर्म ), गृहत्क्षत( बुधदेव ), यम( यमराज ), गंधर्व( पुलम- गातु ), भृंगराज व मृग( नैऋति देव), पित्र( पितृलोक के देव ), दौवारिक( भगवान नंदी , द्वारपाल), सुग्रीव( प्रजापति मनु ), पुष्पदंत( वायुदेव ), वरुण,( जलों-समुद्र के देव लोकपाल वरुण देव ), असुर( सिंहिका पुत्र राहु ), शोष( शनिश्चर ), पापयक्ष्मा( क्षय ), रोग( ज्वर ), नाग( वाशुकी ), मुख्य( भगवान विश्वकर्मा ), भल्लाट( येति, चन्द्रदेव ), सोम( भगवान कुबेर ), भुजग( भगवान शेषनाग ), अदिति( देवमाता, मतांतर से देवी लक्ष्मी ), दिति( दैत्यमाता ) हैं । इनमें से 8 अंदर के एक-एक अतिरिक्त पदों के भी अधिष्ठाता हैं ।
वास्तुपुरुष के प्रत्येक अंग-पद में स्थित देवता के अनुसार उनका सम्मान करते हुए उसी अनुरूप भवन का निर्माण, विन्यास एवं संयोजन करने की अनुमति शास्त्रों में दी गयी है। ऐसे निर्माण के फलस्वरूप वहां निवास करने वालों को सुख, सौभाग्य, आरोग्य, प्रगति व प्रसन्नता की प्राप्ति होती है।
...Muhurt Jyotish / शुभ मुहूर्त
Muhurt Jyotish / शुभ मुहूर्त
हिन्दू धर्म में मुहूर्त एक समय मापन इकाई है। वर्तमान हिन्दी भाषा में इस शब्द को किसी कार्य को आरम्भ करने की शुभ घड़ी को कहने लगे हैं।
एक मुहूर्त बराबर होता है दो घडी के, या लगभग 48 मिनट के.
अमृत/जीव मुहूर्त और ब्रह्म मुहूर्त बहुत श्रेष्ठ होते हैं ; ब्रह्म मुहूर्त सूर्योदय से पच्चीस नाड़ियां पूर्व, यानि लगभग दो घंटे पूर्व होता है। यह समय योग साधना और ध्यान लगाने के लिये सर्वोत्तम कहा गया है।
मुहूर्तों के नाम :-
क्रमांक | समय | मुहूर्त | गुण |
---|---|---|---|
१ | ०६:०० - ०६:४८ | रुद्र | अशुभ |
२ | ०६:४८ - ०७:३६ | आहि | अशुभ |
३ | ०७:३६ - ०८:२४ | मित्र | शुभ |
४ | ०८:२४ - ०९:१२ | पितॄ | अशुभ |
५ | ०९:१२ - १०:०० | वसु | शुभ |
६ | १०:०० - १०:४८ | वाराह | शुभ |
७ | १०:४८ - ११:३६ | विश्वेदेवा | शुभ |
८ | ११:३६ - १२:२४ | विधि | शुभ - सोमवार और शुक्रवार को छोड़कर |
९ | १२:२४ - १३:१२ | सतमुखी | शुभ |
१० | १३:१२ - १४:०० | पुरुहूत | अशुभ |
११ | १४:०० - १४:४८ | वाहिनी | अशुभ |
१२ | १४:४८ - १५:३६ | नक्तनकरा | अशुभ |
१३ | १५:३६ - १६:२४ | वरुण | शुभ |
१४ | १६:२४ - १७:१२ | अर्यमा | शुभ - रविवार को छोड़कर |
१५ | १७:१२ - १८:०० | भग | अशुभ |
१६ | १८:०० - १८:४८ | गिरीश | अशुभ |
१७ | १८:४८ - १९:३६ | अजपाद | अशुभ |
१८ | १९:३६ - २०:२४ | अहिर बुध्न्य | शुभ |
१९ | २०:२४ - २१:१२ | पुष्य | शुभ |
२० | २१:१२ - २२:०० | अश्विनी | शुभ |
२१ | २२:०० - २२:४८ | यम | अशुभ |
२२ | २२:४८ - २३:३६ | अग्नि | शुभ |
२३ | २३:३६ - २४:२४ | विधातॄ | शुभ |
२४ | २४:२४ - ०१:१२ | क्ण्ड | शुभ |
२५ | ०१:१२ - ०२:०० | अदिति | शुभ |
२६ | ०२:०० - ०२:४८ | जीव/अमृत | बहुत शुभ |
२७ | ०२:४८ - ०३:३६ | विष्णु | शुभ |
२८ | ०३:३६ - ०४:२४ | युमिगद्युति | शुभ |
२९ | ०४:२४ - ०५:१२ | ब्रह्म | बहुत शुभ |
३० | ०५:१२ - ०६:०० | समुद्रम् | शुभ |
ए ए मैकडोनेल के अनुसार तैत्तरीय ब्राह्मण में १५ मुहुर्तों के नाम गिनाए गये हैं।
(१) संज्ञानं (२) विज्ञानं (३) प्रज्ञानं (४) जानद् (५) अभिजानत्
(६) संकल्पमानं (७) प्रकल्पमानम् (८) उपकल्पमानम् (९) उपकॢप्तं (१०) कॢप्तम्
(११) श्रेयो (१२) वसीय (१३) आयत् (१४) संभूतं (१५) भूतम् ।
चित्रः केतुः प्रभानाभान्त् संभान् ।
ज्योतिष्मंस्-तेजस्वानातपंस्-तपन्न्-अभितपन् ।
रोचनो रोचमानः शोभनः शोभमानः कल्याणः ।
दर्शा दृष्टा दर्शता विष्वरूपा सुर्दर्शना ।
आप्य्-आयमाणाप्यायमानाप्याया सु-नृतेरा ।
आपूर्यमाणा पूर्यमाणा पूर्यन्ती पूर्णा पौर्णमासी ।
दाता प्रदाताऽनन्दो मोदः प्रमोदः ॥ १०.१.१ ॥
शतपथ ब्राह्मण में एक दिन के पन्द्रहवें भाग (१/१५) को 'मुहूर्त' की संज्ञा दी गयी है।
षोडश संस्कारों में मुहूर्त की आवश्यकता
हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों (षोडश संस्कार) का उल्लेख किया जाता है जो मानव को उसके गर्भाधान संस्कार से लेकर अंत्येष्टि क्रियाक किए जाते हैं। इनमें से विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि संस्कार बड़े धूमधाम से मनाये जाते हैं। वर्तमान समय में सनातन धर्म या हिन्दू धर्म के अनुयायी में गर्भाधन से मृत्यु तक १६ संस्कारों होते है।
इतिहास :-
प्राचीन काल में प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है।
महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।
नामकरण के बाद चूड़ाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है।
विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।
गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है।
संस्कार
१. गर्भाधान :-
हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। वैदिक काल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था।
२. पुंसवन:-
गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार उपयोगी समझा जाता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है। हमारे मनीषियों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है। गर्भस्थ शिशु से सम्बन्धित इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है। विशेष तिथि एवं ग्रहों की गणना के आधार पर ही गर्भधान करना उचित माना गया है।
३. सिमन्तोंनयन :-
सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।
४. जातकर्म:-
नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। यह संस्कार विशेष मन्त्रों एवं विधि से किया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का विशेष रूप से उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।
५. नामकरण :-
एचएचजन्म के ग्यारहवें दिन यह संस्कार होता है। हमारे धर्माचार्यो ने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) माना है। इसलिये यह संस्कार ग्यारहवें दिन करने का विधान है। महर्षि याज्ञवल्क्य का भी यही मत है, लेकिन अनेक कर्मकाण्डी विद्वान इस संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं।
नामकरण संस्कार का सनातन धर्म में अधिक महत्व है। हमारे मनीषियों ने नाम का प्रभाव इसलिये भी अधिक बताया है क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। तभी तो यह कहा गया है राम से बड़ा राम का नाम हमारे धर्म विज्ञानियों ने बहुत शोध कर नामकरण संस्कार का आविष्कार किया। ज्योतिष विज्ञान तो नाम के आधार पर ही भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है।
६. निष्क्रमण :-
दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्दे निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।
७. अन्नप्राशन :-
इस संस्कार का उद्देश्य शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना है। अन्नप्राशन का स्पष्ट अर्थ है कि शिशु जो अब तक पेय पदार्थो विशेषकर दूध पर आधारित था अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में अन्न का सर्वाधिक योगदान है। शुद्ध, सात्विक एवं पौष्टिक आहार से ही तन स्वस्थ रहता है और स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। आहार शुद्ध होने पर ही अन्त:करण शुद्ध होता है तथा मन, बुद्धि, आत्मा सबका पोषण होता है। इसलिये इस संस्कार का हमारे जीवन में विशेष महत्व है।
हमारे धर्माचार्यो ने अन्नप्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है। छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। खीर और मिठाई से शिशु के अन्नग्रहण को शुभ माना गया है। अमृत: क्षीरभोजनम् हमारे शास्त्रों में खीर को अमृत के समान उत्तम माना गया है।
८. चूड़ाकर्म :-
चूड़ाकर्म को मुंडन संस्कार भी कहा जाता है। हमारे आचार्यो ने बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है। इस संस्कार के पीछे शुाचिता और बौद्धिक विकास की परिकल्पना हमारे मनीषियों के मन में होगी। मुंडन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है। नौ माह तक गर्भ में रहने के कारण कई दूषित किटाणु उसके बालों में रहते हैं। मुंडन संस्कार से इन दोषों का सफाया होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता है।
९. विद्द्यारम्भ :-
विद्यारम्भ संस्कार के क्रम के बारे में हमारे आचार्यो में मतभिन्नता है। कुछ आचार्यो का मत है कि अन्नप्राशन के बाद विद्यारम्भ संस्कार होना चाहिये तो कुछ चूड़ाकर्म के बाद इस संस्कार को उपयुक्त मानते हैं। मेरी राय में अन्नप्राशन के बाद ही शिशु बोलना शुरू करता है। इसलिये अन्नप्राशन के बाद ही विद्यारम्भ संस्कार उपयुक्त लगता है। विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये।
१०. कर्णवेध :-
हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है।
यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।
११. यज्ञोपवीत :-
यज्ञोपवीत अथवा उपनयन बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आधात्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है। इस संस्कार के बारे में हमारे धर्मशास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।
१२. वेदारम्भ :-
ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं। इस संस्कार को जन्म से 5वे या 7 वे वर्ष में किया जाता है। अधिक प्रामाणिक 5 वाँ वर्ष माना जाता है। यह संस्कार प्रायः वसन्त पंचमी को किया जाता है।
१३. केशांत :-
गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।
१४. समावर्तन :-
गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।
१५. विवाह :-
प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था।
हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसज्जित है।
१६. अंत्येष्टि:-
अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है।
...Pooja / यज्ञ - अनुष्ठान
यह 30 बातें जो हर पूजा-पाठ करने वाले व्यक्ति को पता होना चाहिए.......
शास्त्रों में बांस की लकड़ी जलाना मना है फिर भी लोग अगरबत्ती जलाते हैं। यह बांस की बनी होती है। अगरबत्ती जलाने से पितृदोष लगता है। शास्त्रों में पूजन विधान में कहीं भी अगरबत्ती का उल्लेख नहीं मिलता सब जगह धुप ही लिखा हुआ मिलता है। अगरबत्ती केमिकल से बनाई जाती है भला केमिकल या बांस जलने से भगवान खुश कैसे होंगे?
पूजा साधना करते समय बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन पर सामान्यतः हमारा ध्यान नहीं जाता है लेकिन पूजा साधना की दृष्टि से यह बातें अति महत्वपूर्ण हैं...
1. गणेशजी को तुलसी का पत्र छोड़कर सब पत्र प्रिय हैं।
भैरव की पूजा में तुलसी स्वीकार्य नहीं है।
2. कुंद का पुष्प शिव को माघ महीने को छोड़कर निषेध है।
3. बिना स्नान किये जो तुलसी पत्र जो तोड़ता है उसे देवता स्वीकार नहीं करते।
4. रविवार को दूर्वा नहीं तोड़नी चाहिए।
5. केतकी पुष्प शिव को नहीं चढ़ाना चाहिए।
6. केतकी पुष्प से कार्तिक माह में विष्णु की पूजा अवश्य करें।
7. देवताओं के सामने प्रज्जवलित दीप को बुझाना नहीं चाहिए।
8. शालिग्राम का आवाह्न तथा विसर्जन नहीं होता।
9. जो मूर्ति स्थापित हो उसमें आवाहन और विसर्जन नहीं होता।
10. तुलसीपत्र को मध्यान्ह के बाद ग्रहण न करें।
11. पूजा करते समय यदि गुरुदेव,ज्येष्ठ व्यक्ति या पूज्य व्यक्ति आ जाए तो उनको उठ कर प्रणाम कर उनकी आज्ञा से शेष कर्म को समाप्त करें।
12. मिट्टी की मूर्ति का आवाहन और विसर्जन होता है और अंत में शास्त्रीयविधि से गंगा प्रवाह भी किया जाता है।
13. कमल को पांच रात,बिल्वपत्र को दस रात और तुलसी को ग्यारह रात बाद शुद्ध करके पूजन के कार्य में लिया जा सकता है।
14. पंचामृत में यदि सब वस्तु प्राप्त न हो सके तो केवल दुग्ध से स्नान कराने मात्र से पंचामृतजन्य फल जाता है।
15. शालिग्राम पर अक्षत नहीं चढ़ता। लाल रंग मिश्रित चावल चढ़ाया जा सकता है।
16. हाथ में धारण किये पुष्प, तांबे के पात्र में चन्दन और चर्म पात्र में गंगाजल अपवित्र हो जाते हैं।
17. पिघला हुआ घी और पतला चन्दन नहीं चढ़ाना चाहिए।
18. दीपक से दीपक को जलाने से प्राणी दरिद्र और रोगी होता है। दक्षिणाभिमुख दीपक को न रखें।
देवी के बाएं और दाहिने दीपक रखें। दीपक से अगरबत्ती जलाना भी दरिद्रता का कारक होता है।
19. द्वादशी, संक्रांति, रविवार, पक्षान्त और संध्याकाल में तुलसीपत्र न तोड़ें।
20. प्रतिदिन की पूजा में सफलता के लिए दक्षिणा अवश्य चढ़ाएं।
21. आसन, शयन, दान, भोजन, वस्त्र संग्रह, विवाद और विवाह के समयों पर छींक शुभ मानी गई है।
22. जो मलिन वस्त्र पहनकर, मूषक आदि के काटे वस्त्र, केशादि बाल कर्तन युक्त और मुख दुर्गन्ध युक्त हो, जप आदि करता है उसे देवता नाश कर देते हैं।
23. मिट्टी, गोबर को निशा में और प्रदोषकाल में गोमूत्र को ग्रहण न करें।
24. मूर्ति स्नान में मूर्ति को अंगूठे से न रगड़ें।
25. पीपल को नित्य नमस्कार पूर्वाह्न के पश्चात् दोपहर में ही करना चाहिए। इसके बाद न करें।
26. जहां अपूज्यों की पूजा होती है और विद्वानों का अनादर होता है, उस स्थान पर दुर्भिक्ष, मरण और भय उत्पन्न होता है।
27. पौष मास की शुक्ल दशमी तिथि, चैत्र की शुक्ल पंचमी और श्रावण की पूर्णिमा तिथि को लक्ष्मी प्राप्ति के लिए लक्ष्मी का पूजन करें।
28. कृष्णपक्ष में, रिक्तिका तिथि में, श्रवणादी नक्षत्र में लक्ष्मी की पूजा न करें।
29. अपराह्नकाल में, रात्रि में, कृष्ण पक्ष में, द्वादशी तिथि में और अष्टमी को लक्ष्मी का पूजन प्रारम्भ न करें।
30. मंडप के नव भाग होते हैं, वे सब बराबर-बराबर के होते हैं अर्थात् मंडप सब तरफ से चतुरासन होता है, अर्थात् टेढ़ा नहीं होता। जिस कुंड की श्रृंगार द्वारा रचना नहीं होती वह यजमान का नाश करता है।
...Palmistry / हस्तरेखा
Palmistry / हस्तरेखा शास्त्र
हस्तरेखा शास्त्र या काइरमैन्सी (जिसेकेरोमन्सी ऐसे भी लिखा जाता है, जो यूनानी शब्द चेइर (cheir) (χειρ) "हाथ" और मंटिया (manteia) (μαντεία) (अनुमानसे) बना है हथेली को पढ़कर लक्षण का वर्णन और भविष्य बताने की कला है जिसे हस्तरेखा अध्ययन या हस्तरेखा शास्त्र भी कहा जाता है। इस कला का प्रयोग कई सांस्कृतिक विविधताओं के साथ दुनिया भर में देखा जाता है। जो हस्तरेखा पढ़ते हैं, उन्हें आम तौर पर हस्तरेखाविद्, हथेली पढ़ने वाला, हाथ पढ़ने वाला, हस्तरेखा विश्लेषक या हस्तरेखा शास्त्री भी कहा जाता है।
तकनीकें
आदमी के दाहिने हाथ की हथेली
हस्तरेखा शास्त्र में हाथ व्यक्ति की हथेली को "पढ़कर" उसके चरित्र या भविष्य के जीवन का मूल्यांकन किया जाता है। विभिन्न "लाइनों" ("दिल की रेखा", "जीवन रेखा", आदि) और "उठान" या (उभार) (हस्तरेखा शास्त्र), को पढ़कर अनुमानत: उनके संबद्ध आकार, गुण और अंतरशाखाओं के संबंध में सुझाव दिये जाते हैं। कुछ रिवाजों में हस्तरेखा पढ़ने वाले उंगलियों, नाखूनों, उंगलियों के निशान और व्यक्ति की त्वचा की रेखाओं, त्वचा की बुनावट व रंग, आकार, हथेली के आकार और हाथ का लचीलापन भी देखते हैं।
एक हस्तरेखाविद् आमतौर पर व्यक्ति के 'प्रमुख हाथ' (जिससे वह लिखता है/लिखती है या जिसका सबसे ज्यादा उपयोग किया जाता है) (जो कभी-कभी सचेत मन का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा हाथ अवचेतन का संकेत करता है). हस्तरेखा विज्ञान की कुछ परंपराओं में दूसरे हाथ को वंशानुगत या परिवार के लक्षणों को धारण किया हुआ या हस्तरेखाविद् के ब्रह्माण्ड संबंधी विश्वासों पर आधारित माना जाता है, जिससे अतीत के जीवन या पूर्व जन्म की शर्तों के बारे में जानकारी मिलती है।
"शास्त्रीय" हस्तरेखा शास्त्र के लिए बुनियादी ढांचे (जो सबसे व्यापक रूप से सिखाया जाता है और परंपरागत रूप से प्रचलित है) की जड़ यूनानी पौराणिक कथाओं में निहित हैं। हथेली और उंगलियों का प्रत्येक क्षेत्र एक देवी या देवता से संबंधित है और उस क्षेत्र की विशेषताएं विषय के इसी पहलू की प्रकृति का संकेत है। उदाहरण के लिए, अनामिका अपोलो यूनानी देवता के साथ जुड़ी़ है; अंगूठी वाली इस उंगली की विशेषताएं कला, संगीत, सौंदर्यशास्त्र, शोहरत, धन और सद्भाव सं संबद्ध विषयों की विवेचना के दौरान देखीं जाती हैं।
बाएं और दाएं हाथ का महत्व
यद्यपि इस बात पर बहस होती रही है कि कौन सा हाथ पढ़ना बेहतर है, पर दोनों का अपना महत्व है। यह रिवाज है कि बांया हाथ व्यक्ति की संभावनाओं को प्रदर्शित करता है और दाहिना सही व्यक्तित्व का प्रदर्शक होता है। कुछ का कहना है कि महत्व इस बात का है कि कौन सा हाथ देखा जाता है। "दाहिने हाथ से भविष्य और बाएं से अतीत देखा जाता है।" "बायां हाथ बताता है कि हम क्या-क्या लेकर पैदा हुए हैं और दाहिना दिखाता है कि हमने इसे क्या बनाया है।" "दाहिना हाथ पुरुषों का पढ़ा जाता है, जबकि महिलाओं का बायां हाथ पढ़ा जाता है।" "बांया हाथ बताता है कि ईश्वर ने आपको क्या दिया है और दायां बताता है कि आपको इस संबंध में क्या करना है।"
लेकिन इन सब कहने की बातें हैं, वृत्ति और अनुभव ही आपको बेहतर ढंग से बतायेगा कि आखिर में कौन सा हाथ पढ़ना ठीक रहेगा.
- वाम हाथ को दाहिने मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित होने के लिए छोड़ दें, (नमूने की पहचान, संबंधों की समझ-बूझ) जिससे व्यक्ति की आंतरिक खासियतों, उसकी प्रकृति, आत्म, स्त्रैण गुण और समस्याओं के निदान का सोच प्रतिबिंबित होता है। इसे एक व्यक्ति के आध्यात्मिक और व्यक्तिगत विकास का एक हिस्सा माना जा सकता है। यह व्यक्तित्व का "स्त्रैण" हिस्सा (स्त्रैण और ग्रहणशील) है।
- इसके विपरीत दाहिना हाथ बाईं मस्तिष्क (तर्क, बुद्धि और भाषा) द्वारा नियंत्रित होता है, जो बाहरी व्यक्तित्व, आत्म उद्देश्य, सामाजिक माहौल का प्रभाव, शिक्षा और अनुभव को प्रतिबिंबित करता है। यह रैखिक सोच का प्रतिनिधित्व करता है। यह व्यक्तित्व के "स्त्रैण" पहलू (पुरुष और जावक) से मेल खाता है।
हाथ का आकार
हस्तरेखा शास्त्र और उन्हें पढ़ने के प्रकार के आधार पर हस्तरेखाविद् हथेली की आकृति और उंगलियों की लाइनों, त्वचा के रंग और बुनावट, नाखूनों की बनावट, हथेली और उंगलियों की अनुपातिक आकार, पोरों की प्रमुखता और हाथ की कई अन्य खासियतों को देख सकते हैं।
हस्तरेखा शास्त्र की अधिकांश धाराओं में हाथ की आकृतियों को 4 या 10 प्रमुख शास्त्रीय प्रकारों में विभाजित किया जाता है और कभी कभी इसके लिए शास्त्रीय तत्वों या विशेषताओं का सहारा भी लिया जाता है। हाथ का आकार संकेतित प्रकार के चरित्र के लक्षणों (यानि, एक "अग्नि हाथ" उच्च ऊर्जा, रचनात्मकता, चिड़चिड़ापन, महत्वाकांक्षा, आदि - सभी गुणों को अग्नि के शास्त्रीय तत्व से संबंधित माना जाता है।)
हालांकि भिन्न-भिन्न रूपों के बावजूद सबसे आम वर्गीकरण ही आधुनिक हस्तरेखाविद् प्रयोग करते हैं।
- 'पृथ्वी' हाथ की पहचान आम तौर पर चौड़ी, वर्गाकार हथेलियों और उंगलियों या मोटी या खुरदरी त्वचा, लाल रंग के तौर पर होती है कलाई से हथेली की उंगलियों के आखिरी हिस्से तक की हथेली की लंबाई आमतौर पर हथेली के सबसे चौड़े हिस्से की चौड़ाई से कम होती है और आम तौर पर उंगलियों की लंबाई के बराबर होती है।
- 'वायु' हाथ में वर्गाकार या आयताकार हथेली व लंबी उंगलियां होती हैं और साथ ही साथ कभी-कभी उभरे हुए पोर, छोटे अंगूठे और अक्सर त्वचा सूखी होती है। कलाई से हथेली की उंगलियों के नीचे करने के लिए लंबाई आमतौर पर उंगलियों की लंबाई से कम है।
- 'जल' हाथ देखने में छोटे होते हैं और कभी-कभी अंडाकार हथेली वाले, लंबी व लचीली उंगलियों वाले होते हैं। कलाई से हथेली की उंगलियों के आखिरी हिस्से तक की हथेली की लंबाई आमतौर पर हथेली के सबसे चौड़े हिस्से की चौड़ाई से कम होती है और आम तौर पर उंगलियों की लंबाई के बराबर होती है।
- 'अग्नि' हाथ में चौकोर या आयताकार हथेली, लाल या गुलाबी त्वचा और उंगलियां छोटी होती हैं। कलाई से हथेली की उंगलियों के आखिरी हिस्से तक की हथेली की लंबाई आमतौर पर उंगलियों की लंबाई से बड़ी होती है।
स्वयं अपनी हथेली में प्रभुत्व वाले तत्व तथा प्रकृति निर्धारित करना सहज है। हाथ के आकार के विश्लेषण में रेखाओं की संख्या और पंक्तियों की गुणवत्ता भी शामिल की जा सकती है। हस्तरेखा शास्त्र की कुछ परंपराओं में, पृथ्वी और जल हाथों में कम और गहरी रेखाएं होती हैं, जबकि वायु और अग्नि हाथ में और अधिक रेखाएं दिख सकती हैं, जिनमें कम स्पष्ट परिभाषा होती है।
1 हस्तकला में हाथ की रेखाओं 1: जीवन रेखा - 2: मस्तिष्क रेखा - 3: दिल की रेखा - 4: सूचक और मध्यम उंगलियों के बीच के कटिसूत्र वीनस - 5: सूर्य रेखा - 6: बुध रेखा - 7: भाग्य रेखा
लगभग सभी हाथों में तीन रेखाएं पाई जाती हैं और आम तौर पर हस्तरेखाविद् इन पर सबसे ज्यादा जोर देते हैं।
- बड़ी रेखाओं में हृदय रेखा को हस्तरेखाविद् पहले जांचता है। यह हथेली के ऊपरी हिस्से और उंगलियों के नीचे होती है। कुछ परंपराओं में, यह रेखा छोटी उंगली के नीचे हथेली के किनारे से और अंगूठे की तरु पूरी हथेली तक पढ़ी जाती है। दूसरों में, यह उंगलियों के नीचे शुरू होती है और हथेली के बाहर के किनारे की ओर बढ़ती देखी जाती है। हस्तरेखाविद् इस पंक्ति की व्याख्या दिल के मामलों के संबंध में करते हैं, जिसमें शारीरिक और लाक्षणिक दोनों शामिल होते हैं और विश्वास किया जाता है कि दिल की सेहत के विभिन्न पहलुओं के अलावा यह भावनात्मक स्थिरता, रुमानी दृष्टिकोण, अवसाद व सामाजिक व्यवहार प्रदार्शित करती हैं।
- हस्तरेखाविद् द्वारा की पहचान की जाने वाली अगली रेखा मस्तिष्क रेखा होती है। यह रेखा तर्जनी उंगली के नीचे से शुरू होकर हथेली होते हुए बाहर के किनारे की ओर बढ़ती है। अक्सर मस्तिष्क रेखा शुरुआत में जीवन रेखा के साथ जुड़ी होती है (नीचे देखें). हस्तरेखाविद् आम तौर पर इस रेखा की व्याख्या व्यक्ति के मन के प्रतिनिधि कारकों के रूप में करते हैं और जिस तरह से यह काम करती है, उनमें सीखने की शैली, संचार शैली, बौद्धिकता और ज्ञान की पिपासा भी शामिल होती है। माना जाता है कि यह सूचना के प्रति रचनात्मक या विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण की प्राथमिकता (यानी, दाहिना दिमाग या बांया दिमाग) का संकेतक होती है।
- अंत में, हस्तरेखाविद् संभवत: सबसे विवादास्पद रेखा-जीवनरेखा को देखते हैं।
यह रेखा अंगूठे के ऊपर हथेली के किनारे से निकलती है और कलाई की दिशा में मेहराब की शक्ल में बढ़ती है। माना जाता है कि यह रेखा व्यक्ति की ऊर्जा और शक्ति, शारीरिक स्वास्थ्य और आम खुशहाली का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसा भी माना जाता है कि जीवन रेखा दुर्घटनाओं, शारीरिक चोट, पुनर्स्थापन सहित जीवन में आने वाले बदलावों को प्रतिबिंबित करती है। आम धारणा के विपरीत, आधुनिक हस्तरेखाविद् आम तौर पर यह विश्वास नहीं करते कि एक व्यक्ति की जीवन रेखा की लंबाई के व्यक्ति की उम्र से जुड़ी हुई है।
अतिरिक्त मुख्य रेखाओं या रूपों में शामिल हैं:
- एक बन्दर रेखा (क्रीज) या दिल और मुख्य रेखा का मिलनस्थल का भावनात्मक और तार्किक प्रकृति दोनों के अध्ययन में अकेले इस रेखा का खास महत्व है। इस अजीब रेखा को सिर और दिल की रेखा का संयोजन माना जाता है और ऐसे हाथ को बाकी हाथों से अलग चिह्नित किया जाता है।
हस्तरेखाशास्त्र के अनुसार, यह रेखा एक व्यक्ति को उद्देश्य की तीव्रता या किसी उद्देश्य के प्रति एकाग्रता प्रदान करती है, जिसका स्वभाव हाथ पर इस रेखा की सही स्थिति और इससे निकलनेवाली किन्हीं शाखाओं से निर्धारित होती है, जो एक सामान्य मामला होता है। उन हाथों में, जिनमें ऐसी रेखा बिना किसी शाखा के एकल चिह्न के रूप में मौजूद होती है, वह अत्यंत गहन प्रकृति की ओर संकेत करती है और व्यक्तियों की विशेष देखभाल की जरूरत होती है। इस रेखा की सामान्य स्थिति सबसे बड़ी उंगली के नीचे शुरू होती है और सामान्य रूप से वहां समाप्त होती है, जहां दिल की रेखा छोटी उंगली के नीचे हाथ के किनारे खत्म होती है, इससे व्यक्ति के औसत हितों का संकेत मिलता है और स्वभाव की गहनता विशुद्ध रूप से यहां से निकलनेवाली किन्हीं शाखाओं की दिशा से निर्धारित होती है। हथेली के ऊपरी आधे हिस्से, जो उंगलियों तुरंत नीचे होता है, व्यक्ति के उच्चतर या बौद्धिक स्वभाव का प्रतिनिधित्व करता है और हथेली के निचला आधा हिस्सा व्यक्ति के स्वभाव के भौतिकवादी पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है। अगर इन आधे-आधे हिस्सों में से एक बड़ा होता है, जो मुख्य रेखा की केंद्रीय स्थिति या इस मामले में एकल अनुप्रस्थ हथेली रेखा से निर्धारित होता है, व्यक्ति के स्वभाव के व्यापक विकास के पहलू को प्रदर्शित करता है। हालांकि यह एक आम सिद्धांत है कि अगर यह रेखा अपनी सामान्य स्थिति से नीचे होती है तो इससे गहन बौद्धिक स्वभाव का संकेत मिलता है, पर अगर यह अपनी सामान्य स्थिति से ऊपर होती है, तो घोर भौतिकवादी प्रकृति और हितों को दर्शाता है। इस रेखा से निकली किन्हीं शाखाओं की दिशा का इस रेखा पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है, जिससे ऊपर परिभाषित परिणामों से उपयुक्त संशोधन होते हैं और यह हाथ के उभार की प्रकृति पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए, यदि इस रेखा से एक शाखा अंगूठे के बिल्कुल विपरीत चंद्रमा के उभार पर हाथ के निचले किनारे की ओर बढ़ती है तो यह संकेत करता है कि व्यक्ति भावुक स्वभाव और काफी हिचकिचानेवाला है।
- भाग्य रेखा कलाई के पास हथेली के निचले हिस्से से शुरू होती है और हथेली के केन्द्र से होते हुए मध्य उंगली की ओर जाती है। माना जाता है कि यह रेखा स्कूल और कैरियर के चयन, सफलताओं और बाधाओं सहित व्यक्ति के जीवन-पथ से जुड़ी होती है। कभी कभी माना जाता है कि यह रेखा व्यक्ति के नियंत्रण, या एकांतर रूप में व्यक्ति की पसंद और उनके परिणामों से परे परिस्थितियों को प्रतिबिंबित करती है।
मंगल नकारात्मक हस्तकला बृहस्पति, शनि, अपोलो, बुध, मंगल सकारात्मक, मार्स नेगटिव, प्लेन ऑफ़ मार्स, लुना माउंट, नेपच्यून माउंट, वेनस माउंट.
अन्य छोटी रेखाएं :-
- सूर्य रेखा - भाग्य रेखा के समानांतर अंगूठी वाली उंगली के नीचे स्थित यह रेखा यश या घोटाले की ओर इंगित करती है।
- सूचक और मध्यम उंगलियों के बीच के कटिसूत्र वीनस - छोटी और अंगूठी वाली उंगलियों के बीच से शुरू होने वाली रेखाएं अंगूठी वाली उंगलियों और मध्य उंगली के बीच मेहराबनुमा आकार से गुजरती है और मध्य और अंगूठी वाली उंगलियों के बीच खत्म होती है और माना जाता है कि ये भावुक खोजी बुद्धि और हेराफेरी की क्षमता से संबंधित होती है।
- संघीय रेखाएं - ये छोटी क्षैतिज रेखाएं दिल की रेखा और छोटी उंगली के अंत के बीच में होती हैं और माना जाता है कि ये कभी-कभी, लेकिन हमेशा नहीं- रोमांटिक करीबी रिश्तों की ओर इशारा करती हैं।
- बुध रेखा - यह कलाई के पास हथेली के नीचे से शुरू होती है और हथेली होते हुए छोटी उंगली की ओर जाती है माना जाता है कि यह स्वास्थ्य के मुद्दों व्यापार बुद्धि, या संचार में कौशल की ओर इंगित करती हैं।
- यात्रा रेखा - ये क्षैतिज रेखाएं कलाई और दिल की रेखा के बीच हथेली के किनारे को छूती है, प्रत्येक रेखा व्यक्ति की यात्रा की बारंबारता को दर्शाती है यानी अगर रेखा लंबी होगी तो व्यक्ति की यात्रा भी ज्यादा महत्वपूर्ण होगी।
- अन्य चिह्न - इनमें नक्षत्र, पार, त्रिकोण, वर्गाकृतियां, त्रिशूल और प्रत्येक उंगलियों के छल्ले शामिल होते हैं, माना जाता है कि हथेली की स्थितियों के आधार पर उनके प्रभाव और अर्थ अलग-अलग होते हैं और हस्तक्षेप करने वाली रेखाओं से मुक्त होती हैं।
- "अपोलो रेखा"- अपोलो रेखा का मतलब है एक भाग्यशाली जीवन, यह चंद्रमा के उभार से चलकर अपोलो उंगली के नीचे कलाई तक जाती है।
- "अशुभ लाइन" - यह जीवन रेखा को पार कर अंग्रेजी के 'एक्स' के रूप में होती है; यह बहुत बुरा संकेत है और हस्तरेखाविद अक्सर इसका उल्लेख नहीं करते, क्योंकि इस अशुभ रेखा के बारे में बताने से व्यक्ति चिंतित हो जाता है। अशुभ लाइन के आम संकेतक में अन्य लाइनों से मिलकर बना 'M' आकार शामिल होता है।
Gems Consultant / रत्न परामर्श
ज्योतिष रत्न विज्ञान / Gems Astrology
रत्न (gemstone) विज्ञान को फलित ज्योतिष अथवा अन्य किसी अधिभौतिक विषय की तर्ज पर विज्ञान का दर्जा नहीं मिला है। जैमोलॉजी वास्तव में एक विज्ञान है और इस पर अच्छा खासा काम हो रहा है। यह बात अलग है कि कीमती पत्थरों ने अपना यह स्थान खुद बनाया है। ठीक सोने, चांदी और प्लेटिनम की तरह। इसमें ज्योतिष का कोई रोल नहीं है।
यकीन मानिए भाग्य के साथ रत्नों का जुड़ाव मोहनजोदड़ो सभ्यता के दौरान भी रहा है। उस जमाने में भी भारी संख्या में गोमेद रत्न प्राप्त हुए हैं। यह सामान्य अवस्था में पाया जाने वाला रत्न नहीं है, इसके बावजूद इसकी उत्तरी पश्चिमी भारत में उपस्थिति पुरातत्ववेत्ताओं के लिए भी आश्चर्य का विषय रही।
पता नहीं उस दौर में इतने अधिक लोगों ने गोमेद धारण करने में रुचि क्यों दिखाई, या गोमेद का रत्न के रूप में धारण करने के अतिरिक्त भी कोई उपयोग होता था, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन वर्तमान में राहू की दशा भोग रहे जातक को राहत दिलाने के लिए गोमेद पहनाया जाता है। इंटरनेट और किताबों में रत्नों के बारे में विशद जानकारी देने वालों की कमी नहीं है। इसके इतर मेरी पोस्ट इसकी वास्तविक आवश्यकता के बारे में है। मैं एक ज्योतिष विद्यार्थी होने के नाते रत्नों को पहनने का महत्व बताने नहीं बल्कि इनकी वास्तविक आवश्यकता बताने का प्रयास करूंगा।
दो विधाओं में उलझा रत्न विज्ञान
वर्तमान दौर में हस्तरेखा और परम्परागत ज्योतिष एक-दूसरे में इस तरह घुलमिल गए हैं कि कई बार एक विषय दूसरे में घुसपैठ करता नजर आता है। रत्नों के बारे में तो यह बात और भी अधिक शिद्दत से महसूस होती है। हस्तरेखा पद्धति ने हाथ की सभी अंगुलियों के हथेली से जुड़े भागों पर ग्रहों का स्वामित्व दर्शाया है। ऐसे में कुण्डली देखकर रत्न पहनने की सलाह देने वाले लोग भी हस्तरेखा की इन बातों को फॉलो करते दिखाई देते हैं।
जैसे बुध के लिए बताया गया पन्ना हाथ की सबसे छोटी अंगुली में पहनने, गुरु के लिए पुखराज तर्जनी में पहनने और शनि मुद्रिका सबसे बड़ी अंगुली में पहनने की सलाहें दी जाती हैं। बाकी ग्रहों के लिए अनामिका तो है ही, क्योंकि यह सबसे शुद्ध है। मुझे इस शुद्धि का स्पष्ट आधार नहीं पता लेकिन शुक्र का हीरा, मंगल का मूंगा, चंद्रमा का मोती जैसे रत्न इसी अंगुली में पहनने की सलाह दी जाती है।
शरीर से टच तो हुआ ही नहीं
शुरूआती दौर में जब मुझे ज्योतिष की टांग-पूछ भी पता नहीं थी, तब मैं एक पंडितजी के पास जाया करता था। वहां एक जातक को लेकर गया, उन्होंने मोती पहनने की सलाह दी। मैंने जातक के साथ गया और मोती की अंगूठी बनवाकर पहना दी। कई सप्ताह गुजर गए। कोई फर्क महसूस नहीं हुआ तो जातक महोदय मेरे पास आए और मुझे लेकर फिर से पंडितजी के पास पहुंचे।
पंडितजी ने कहा दिखाओ कहां है अंगूठी। दिखाई तो वे खिलखिलाकर हंस दिए। बोले यह तो शरीर के टच ही नहीं हो रही है तो इसका असर कैसे पड़ेगा। मैंने पूछा तो टच कैसे होगी। तो उन्होंने बताया कि बैठकी मोती खरीदो और फलां दुकान से बनवा लो। हम दौड़े-दौड़े गए और बैठकी मोती लेकर बताई गई दुकान पर पहुंच गए। हमने बताया कि टच होने वाली अंगूठी बनानी है। दुकानदार समझ गया कि पंडित जी ने भेजा है। उसने कहा कल ले जाना।और अगले दिन अंगूठी बना दी। वह इस तरह थी कि नीचे का हिस्सा खाली था। इससे मोती अंगुली को छूता था। कुछ ही दिनों में मोती पहनाने का असर भी हो गया। मेरे मन में भक्ति भाव जाग गया, और एक बात हमेशा के लिए सीख गया कि जो भी रत्न पहनाओ उसे शरीर के टच कराना जरूरी है।
टच से क्या होता है किरणें महत्वपूर्ण हैं
अंग्रेजी में इसे पैराडाइम शिफ्ट कहते हैं और हिन्दी में मैं कहूंगा दृष्टिकोणीय झटका। एक दूसरे हस्तरेखाविज्ञ कई साल बाद मुझसे मिले। मैं किसी को उपचार बता रहा था और साथ में शरीर से टच होने वाली नसीहत भी पेल रहा था, कि हस्तरेखाविज्ञ ने टोका कि टच होने से क्या होता है, यह कोई आयुर्वेदिक दवा थोड़े ही है। रत्नों के जरिए तो किरणों से उपचार होता है। मैंने स्पष्ट कह दिया समझा नहीं तो उन्होंने समझाया कि हम जो रत्न पहनते हैं वे ब्रह्माण्ड की निश्चित किरणों को खींचकर हमारे शरीर की कमी की पूर्ति करते हैं। इससे हमारे कष्ट दूर हो जाते हैं।
विज्ञान का औसत विद्यार्थी होने के बावजूद मुझे पता था कि हम जो रंग देखते हैं वास्तव में वह उस पदार्थ द्वारा रिफलेक्ट किया गया रंग होता है। यानि स्पेक्ट्रम के एक रंग को छोड़कर बाकी सभी रंग वह पदार्थ निगल लेता है, जो रंग बचता है वही हमें दिखाई देता है। ऐसा ही कुछ रत्नों के साथ भी होता होगा। यह सोचकर मुझे उनकी बात में दम लगा।
अब मैं तो कंफ्यूजन में हूं कि वास्तव में टच करने से असर होगा या किरणों से असर होगा।वास्तव में रत्नों की जरूरत है भी कि नहीं रत्नों का विकल्प क्या हो सकता हैरत्न किसे पहनाना आवश्यक है। इन सब बातों को लेकर कालान्तर में मैंने कुछ तय नियम बना लिए। अब ये कितने सही है कितने गलत यह तो नहीं बता सकता, लेकिन इससे जातक को धोखे में रखने की स्थिति से बच जाता हूं।
...Numerology / अंक ज्योतिष
Numerology / अंक ज्योतिष
अंक ज्योतिष, ज्योतिष शास्त्र की तरह ही एक ऐसा विज्ञान है जिसमें अंकों की मदद से व्यक्ति के भविष्य के बारे में जानकारी दी जाती है। हिंदी में इसकी गूढ़ विद्या को अंक शास्त्र और अंग्रेजी में न्युमेरोलोजी कहते हैं। अंक ज्योतिष में खासतौर से गणित के कुछ नियमों का प्रयोग कर व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पहलुओं का आकलन कर उनके आने वाली जिंदगी के बारे में भविष्यवाणी की जाती है। अंक ज्योतिष में जातक की जन्म तिथि के आधार पर मूलांक निकालकर उसके भविष्य फल की गणना की जाती है।
मूलांक
क्या है अंक ज्योतिष ?
अंक ज्योतिष वास्तव में अंकों और ज्योतिषीय तथ्यों का मेल कहलाता है। अर्थात अंकों का ज्योतिषीय तथ्यों के साथ मेल करके व्यक्ति के भविष्य की जानकारी देना ही अंक ज्योतिष कहलाती है। जैसे कि आप सभी इस बात से भली भाँती अवगत होंगें कि अंक 1 से 9 होते हैं। इसके साथ ही ज्योतिष शास्त्र मुख्य रूप से तीन मुख्य तत्वों पर आधारित होते हैं: ग्रह नक्षत्र और राशि। लिहाजा अंक शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र का मिलान सभी नौ ग्रहों, बारह राशियां और 27 नक्षत्रों के आधार पर किया जाता है। वैसे देखा जाए तो व्यक्ति के अमूमन सभी कार्य अंकों के आधार पर ही किये जाते हैं। अंक के द्वारा ही साल, महीना, दिन, घंटा, मिनट और सेकंड जैसी आवश्यक चीजों को व्यक्त किया जाता है।
अंक ज्योतिष का इतिहास
जहाँ तक अंक ज्योतिष के इतिहास की बात है तो आपको बता दें कि इसका प्रयोग मिस्र में आज से तक़रीबन 10,000 वर्ष पूर्व से किया जाता आ रहा है। मिस्र के मशहूर गणितज्ञ पाइथागोरस ने सबसे पहले अंको के महत्व के बारे में दुनिया को बताया था। उन्होनें कहा था कि “अंक ही ब्रह्मांड पर राज करते हैं।” अर्थात अंकों का ही महत्व संसार में सबसे ज्यादा है। प्राचीन काल में अंक शास्त्र की जानकारी खासतौर से भारतीय, ग्रीक, मिस्र, हिब्रु और चीनियों को थी। भारत में प्रचीन ग्रंथ “स्वरोदम शास्त्र” के ज़रिये अंक शास्त्र के विशेष उपयोग के बारे में बताया गया है। प्राचीन क़ालीन साक्ष्यों और अंक शास्त्र के विद्वानों की माने तो, इस विशिष्ट शास्त्र का प्रारंभ हिब्रु मूलाक्षरों से हुआ था। उस वक़्त अंक ज्योतिष विशेष रूप से हिब्रु भाषी लोगों का ही विषय हुआ करता था। साक्ष्यों की माने तो दुनियाभर में अंक शास्त्र को विकसित करने में मिस्र की जिप्सी जनजाति का सबसे अहम योगदान रहा है।
क्यों किया जाता है अंक ज्योतिष का प्रयोग ?
अंक ज्योतिष का प्रयोग विशेष रूप से अंकों के माध्यम से व्यक्ति के भविष्य की जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जाती है। अंक ज्योतिष में की जाने वाली भविष्य की गणना विशेष रूप से ज्योतिषशास्त्र में अंकित नव ग्रहों (सूर्य, चन्द्र, गुरु, राहु, केतु, बुध, शुक्र, शनि और मंगल) के साथ मिलाप करके की जाती है। 1 से 9 तक के प्रत्येक अंकों को 9 ग्रहों का प्रतिरूप माना जाता है, इसके आधार पर ही ये जानकारी प्राप्त की जाती है कि किस ग्रह पर किस अंक का असर है। जातक के जन्म के बाद ग्रहों की स्थिति के आधार पर ही उसके व्यक्तित्व की जानकारी प्राप्त की जाती है। जन्म के दौरान ग्रहों की स्थिति के अनुसार ही जातक का व्यक्तित्व निर्धारित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के जन्म के समय एक प्राथमिक और एक द्वितीयक ग्रह उस पर शासन करता है। इसलिए, जन्म के बाद जातक पर उस अंक का प्रभाव सबसे अधिक होता है, और यही अंक उसका स्वामी कहलाता है। व्यक्ति के अंदर मौजूद सभी गुण जैसे की उसकी सोच, तर्क शक्ति, दर्शन, इच्छा, द्वेष, स्वास्थ्य और करियर आदि अंक शास्त्र के अंकों और उसके साथी ग्रह से प्रभावित होते हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि दो व्यक्तियों का मूलांक एक ही हो तो दोनों के बीच परस्पर तालमेल अच्छा होता है।
अंकशास्त्र का महत्व
ज्योतिषशास्त्र की तरह ही अंक शास्त्र का भी महत्व ज्यादा होता है। इस विशेष विद्या के ज़रिये व्यक्ति के भविष्य से जुड़ी जानकारी को हासिल किया जा सकता है। अंक ज्योतिष या अंक शास्त्र की मदद से किसी व्यक्ति में विधमान गुण, अवगुण, व्यवहार और विशेषताओं के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके माध्यम से शादी से पहले भावी पति पत्नी का मूलांक निकालकर उनके गुणों का मिलान भी किया जा सकता है। आजकल देखा गया है कि अंकशास्त्र का प्रयोग वास्तुशास्त्र में भी करते हैं। नए घर का निर्माण करते वक़्त सभी अंकों का भी विशेष ध्यान रखा जाता है। उदाहरण स्वरूप घर में कितनी सीढ़ियां होनी चाहिए, कितनी खिड़कियाँ और दरवाज़े होनी चाहिए इसका निर्धारण अंक शास्त्र के माध्यम से ही किया जाता है। इसके साथ ही सफलता प्राप्ति के लिए भी लोग इस विद्या का प्रयोग कर अपने नाम की स्पेलिंग में भी परिवर्तन कर रहे हैं। जैसे कि फिल्म जगत की बात करें तो मशहूर निर्माता निर्देशक करण जौहर से लेकर एकता कपूर तक सभी ने अंक शास्त्र की मदद से अपना भाग्योदय किया है।
मूलांक का अंक ज्योतिष में महत्व
मूलांक में मुख्य रूप से अंकों का प्रयोग तीन तरीके से किया जाता है :
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मूलांक : किसी व्यक्ति की जन्म तिथि को एक-एक कर जोड़ने से जो अंक प्राप्त होता है वो उस व्यक्ति का मूलांक कहलाता है। उदाहरण स्वरूप यदि किसी व्यक्ति कि जन्म तिथि 28 है तो 2+8 =10, 1 +0 =1, तो व्यक्ति का मूलांक 1 होगा।
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भाग्यांक: किसी व्यक्ति की जन्म तिथि, माह और वर्ष को जोड़ने के बाद जो अंक प्राप्त होता है वो उस व्यक्ति का भाग्यांक कहलाता है। जैसे यदि किसी व्यक्ति की जन्म तिथि 28-04-1992 है तो उस व्यक्ति का भाग्यांक 2+8+0+4+1+9+9+2 = 35, 3+5= 8, अर्थात इस जन्मतिथि वाले व्यक्ति का भाग्यांक 8 होगा।
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नामांक: किसी व्यक्ति के नाम से जुड़े अक्षरों को जोड़ने के बाद जो अंक प्राप्त होता है, वो उस व्यक्ति का नामांक कहलाता है। उदाहरण स्वरूप यदि किसी का नाम “RAM” है तो इन अक्षरों से जुड़े अंकों को जोड़ने के बाद ही उसका नामांक निकला जा सकता है। R(18, 1+8=9+A(1)+M(13, 1+3=4), 9+1+4 =14=1+4=5, लिहाजा इस नाम के व्यक्ति का नामांक 5 होगा।
इसके साथ ही आपको बता दें की अंक शास्त्र में किसी भी अंक को शुभ या अशुभ नहीं माना जाता है। जैसे की 7 को शुभ अंक माना जाता है लेकिन 13 को अशुभ, जबकि यदि 13 का मूलांक निकाला जाए तो भी 7 ही आएगा।
हर अक्षर से जुड़े अंक का विवरण निम्नलिखित है :
A B C D E F G H I J K L M N O P Q R S T U V W X Y Z
1 2 3 4 5 6 7 8 9 1 2 3 4 5 6 7 8 9 1 2 3 4 5 6 7 8 9
किसी भी व्यक्ति का मूलांक और भाग्यांक ये दोनों ही उसके जन्म तिथि के आधार पर निकाले जानते हैं, इसे किसी भी हाल में बदला नहीं जा सकता है। अंक शास्त्र के अनुसार यदि किसी का नामांक, मूलांक और भाग्यांक से मेल खाता हो तो ऐसे व्यक्ति को जीवन में अप्रत्याशित मान, सम्मान, खुशहाली और समृद्धि मिलती है। बहरहाल आजकल लोग अपने नाम की स्पेलिंग बदलकर अपने नामांक को मूलांक या भाग्यांक से मिलाने का प्रयास करते हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिलती है और जीवन सुखमय भी बीतता है।
अंक शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र
अंक शास्त्र ज्योतिषशास्त्र की तरह ही एक प्राचीन विद्या है। ये दोनों ही एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। भविष्य से जुड़ी किसी भी प्रकार की जानकारी प्राप्त करने के लिए अंक ज्योतिष विद्या का ही प्रयोग किया जाता है। हालाँकि इसके लिए ज्यादातर लोग ज्योतिषशास्त्र का ही प्रयोग करते हैं, अंक शास्त्र इस मामले में अभी भी पीछे हैं। वैसे तो अंक शास्त्र ज्योतिषशास्त्र का ही एक भाग है लेकिन भविष्य की जानकारियाँ देने में दोनों में अलग-अलग तथ्यों का प्रयोग किया जाता है। आजकल अंक शास्त्र की मदद से लोग विशेष रूप से कुछ कामों में अंकों की मदद लेते हैं। जैसे की लाटरी निकलने में या फिर मकान का अलॉटमेंट करने के लिए। जैसे की हमने आपको पहले ही बताया कि प्रतीक अंक किसी ना किसी ग्रह से जुड़े हैं। बहरहाल बात साफ़ है कि अंकशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। आजकल ना केवल आम व्यक्ति बल्कि बहुत सी जानी मानी हस्तियां भी अंक शास्त्र में विश्वास रखती हैं। ज्योतिषशास्त्र में जिस प्रकार से जातक के बारे में उसकी राशि और कुंडली में मौजूद ग्रह नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार भविष्यफल बताया जाता है। इसके विपरीत अंक शास्त्र में व्यक्ति की जन्म तिथि के अनुसार मूलांक, भाग्यांक और नाम के अनुसार नामांक निकालकर भविष्य फल की गणना की जाती है।
...Medical Astro / चिकित्सा ज्योतिष
चिकित्सा ज्योतिष में ग्रहों की भूमिका
| Role of Planets in Medical Astrology | Significance of Planets in Medical Astrology
सभी ग्रह शरीर के किसी न किसी अंग का प्रतिनिधित्व करते हैं। नौ ग्रहों में से जब कोई भी ग्रह पीड़ित होकर लग्न, लग्नेश, षष्ठम भाव अथवा अष्टम भाव से सम्बन्ध बनाता है। तो ग्रह से संबंधित अंग रोग प्रभावित हो सकता है. प्रत्येक ग्रह के पीड़ित रहने पर या कोई ग्रह छठे स्थान का स्वामी होकर लग्न भाव या किसी अन्य भाव में कौन सी बीमारी दे सकता है। आइये समझते हैं।
सूर्य | The Sun
ह्रदय, पेट. पित्त , दायीं आँख, घाव, जलने का घाव, गिरना, रक्त प्रवाह में बाधा आदि।
चंद्र | The Moon
शरीर के तरल पदार्थ, रक्त बायीं आँख, छाती, दिमागी परेशानी, महिलाओं में मासिक चक्र।
मंगल | The Mars
सिर, जानवरों द्वारा काटना, दुर्घटना, जलना, घाव, शल्य क्रिया, आपरेशन, उच्च रक्तचाप, गर्भपात इत्यादि।
बुध | The Mercury
गला, नाक, कान, फेफड़े, आवाज, बुरे सपने।
गुरु | The Jupiter
यकृत शरीर में चर्बी, मधुमेह, शुक्र चिरकालीन बीमारियां , कान इत्यादि।
शुक्र | The Venus
मूत्र में जलन, गुप्त रोग, आँख, आंतें , अपेंडिक्स, मधुमेह, मूत्राशय में पथरी।
शनि | The Saturn
पांव, पंजे की नसे, लसीका तंत्र, लकवा, उदासी, थकान।
राहू | The Rahu
हड्डियां , जहर फैलाना, सर्प दंश, क्रानिक बीमारियां, डर आदि।
केतु | The Ketu
हकलाना, पहचानने में दिक्कत, आंत, परजीवी इत्यादि।
किसी भी रोगी जातक की कुंडली का विश्लेषण करते समय सबसे पहले ३, ६, ८ स्थान के ग्रहों की शक्ति का आंकलन करना चाहिए।
यह ज्ञात होने पर की भविष्य में कौन सी बीमारी होने वाली है. यह रोग होने की संभावना है। उससे बचने के उपाय रोगी को बताने चाहिए. साथ ही किसी योग्य चिकित्सक की सलाह से रोग निदान कराने की भी सलाह देनी चाहिए।
चिकित्सा ज्योतिष के में कुछ नियम वेद – पुराणों में भी दिए गए हैं. विष्णु वेद-पुराण में कहा गया है की भोजन करते समय अपना मुख पूर्व दिशा, उतर दिशा में रखना चाहिए। उससे पाचन क्रिया उत्तम रहती है।
जन्म पत्रिका और हस्त रेखाओं का अध्ययन करने के बाद ज्योतिषी यह बताने का प्रयत्न करते हैं की उक्त व्यक्ति को भविष्य में कौन सी बीमारी होने की संभावना है। जैसे जन्म कुण्डली में तुला लग्न या राशि पीड़ित हो तो व्यक्ति कि कमर के निचले वाले भाग में समस्या होने की संभावना रहती है। जन्मपत्रिका में बीमारी का घर छठवां स्थान माना जाता है और अष्टम स्थान आयु स्थान है।
तृतीय स्थान अष्टम से अष्टम होने से यह स्थान भी बीमारी के प्रकार की और इंगित करता है। जैसे तृतीय स्थान में चंद्र पीड़ित हो तो टी.बी. की बीमारी की संभावना रहती है और तृतीय स्थान में शुक्र पीड़ित हो तो मधुमेह की संभावना रहती है।
उपरोक्त ग्रहों में जो ग्रह छठे भाव का स्वामी हो या छठे भाव के स्वामी से युति सम्बन्ध बनाए उस ग्रह की दशा में रोग होने के योग बनते हैं। छठे भाव के स्वामी का सम्बन्ध लग्न भाव लग्नेश या अष्टमेश से होना स्वास्थ्य के पक्ष से शुभ नहीं माना जाता है।
जब छठे भाव का स्वामी एकादश भाव में हो तो रोग अधिक होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसी प्रकार छठे भाव का स्वामी अष्टम भाव में हो तो व्यक्ति को लंबी अवधि के रोग होने की अधिक संभावनाएं रहती हैं।
...Varsh Kundali / वर्ष कुण्डली
Varsh Kundali / वर्ष कुण्डली / वर्षफल
वर्ष फल पद्धति अपने आप में एक महत्वपूर्ण पद्धति है। वर्ष फल के द्वारा हम एक वर्ष में होने वाली घटनाओं का अनुमान लगा सकते हैं।
वर्ष फल कुण्डली में ग्रहों की आपसी दृष्टियाँ पराशरी दृष्टि से भिन्न होती हैं। यहाँ हम ताजिक दृष्टियों का प्रयोग करते हैं। वर्ष कुण्डली में 3,5,9,11 भावों में स्थित ग्रहों की आपसी दृष्टि मित्र दृष्टि कहलाती है। 2,6,8,12 भावों में स्थित ग्रहों की आपसी दृष्टि सम दृष्टि कहलाती है। 1,4,7,10 भावों में स्थित ग्रहों की आपसी दृष्टि शत्रु दृष्टि कहलाती है।
वर्ष फल में ताजिक योगों का बहुत ज्यादा महत्व है। यह ताजिक योग शुभ और अशुभ दोनों प्रकार से बनते हैं। योग तो बहुत से हैं लेकिन सोलह योगों का महत्व अधिक है। जो निम्न लिखित हैं -
- इक्कबाल योग
- इन्दुवार योग
- इत्थशाल योग
- ईशराफ योग
- नक्त योग
- यमया योग
- मणऊ योग
- कम्बूल योग
- गैरी कम्बूल योग
- खल्लासर योग
- रद्द योग
- दुष्फाली कुत्थ योग
- दुत्थकुत्थीर योग
- ताम्बीर योग
- कुत्थ योग
- दुरुफ योग
वर्ष कुण्डली में मुन्था का भी महत्व काफी है। मुन्था को हम ग्रह के जैसे मानते हैं। वर्ष कुण्डली में जिस भाव में मुन्था स्थित होती है उस भाव तथा भाव के स्वामी कि स्थिति को देखा जाता है। बली हैं या निर्बल है। 4,6,7,8,12 भाव में मुन्था का स्थित होना शुभ नहीं माना जाता है। इसी प्रकार हम वर्ष कुण्डली में वर्षेश तथा पंचाधिकारियों की स्थिति को भी देखते हैं। वर्षेश की स्थिति कुण्डली में यदि कमजोर है तो शुभ नहीं है। इनके अलावा त्रिपताकी चक्र का निर्माण भी किया जाता है। इसके आधार पर भी वर्ष कुण्डली का फलित किया जाता है। वर्ष कुण्डली में सहम का भी महत्व है। यदि अच्छे सहम बन रहें हैं तो फल अच्छे मिल सकते हैं।
वर्ष कुण्डली में तीन प्रकार की दशाओं का प्रयोग किया जाता है। प्रथम दशा विंशोत्तरी मुद्दा दशा है। द्वितीय दशा विंशोत्तरी योगिनी दशा है। तृ्तीय दशा सबसे महत्वपूर्ण दशा है जो पात्यायनी दशा कहलाती है। मुद्दा दशा और योगिनी दशा की गणना पराशरी गणना के जैसी है लेकिन पात्यायनी दशा की गणना इनसे भिन्न है, इस दशा में वर्ष कुण्डली में ग्रहों के भोगांश के आधार पर दशा क्रम निश्चित किया जाता है।
वर्ष कुण्डली में विंशोपक बल या विश्व बल की गणना का भी महत्व होता है। यह बल राहु/केतु को छोड़कर सात ग्रहों पर आधारित होता है। इस बल को हम गणितीय विधि से निकालते हैं। इस बल के अधिकतम अंक 20 होते हैं। जिस ग्रह के 15 से 20 के मध्य बल है वह बहुत बली हो जाता है। जो ग्रह 10 से 15 के मध्य बल पाता है वह बली होता है। जो 5 से 10 के मध्य बल पाता है वह ग्रह निर्बल होता है। 5 से नीचे बल प्राप्त करने वाला बहुत अधिक कमजोर होता है।
उपरोक्त नियमों के आधार पर वर्ष कुण्डली का निर्माण होता है। वर्ष फल कुण्डली का अपना स्वतंत्र रूप से कोई महत्व नहीं है। यदि व्यक्ति की जन्म कुण्डली में कोई अच्छा योग नहीं है और वर्ष कुण्डली उस वर्ष में अच्छे योग दिखा रही है तोवर्ष कुण्डली के अच्छे फलों का कोई महत्व नहीं होगा।
...Horoscope / जन्मपत्रिका निर्माण
Horoscope / कुंडली / जन्मकुंडली या जन्मपत्रिका क्या है ?
आपके जन्म समय और जन्म तिथि के समय आकाश में स्थित ग्रहों का संयोजन एक विशेष चक्र के रुप में करना कुंडली चक्र या लग्न चक्र कहलाता है। कुंडली, विशेष रूप से वैदिक ज्योतिष पर आधारित रहता है। व्यापक अर्थ में, ग्रहो की स्थिति, दशा विश्लेषण, कुंडली में बनने वाले दोष एवं उनके उपाय, पत्रिका में विशेष योगों का संयोजन, ग्रहों का शुभाशुभ विचार इत्यादि का समावेश सम्पूर्ण जन्म कुंडली में किया जाता है। कुंडली को जन्म कुंडली या जन्मपत्रिका भी कहते हैं।
आपने कम से कम एक बार तो जन्मपत्री या जन्म कुंडली के बारे में सुना ही होगा। लेकिन क्या ये जानते हैं, कि जन्मपत्री के पन्नों में जीवन के कितने रहस्य छुपे होते हैं? ये मदद करती है! आपकी क्षमता को प्रकट करने और कोई लक्ष्य बनाने में। जन्मपत्री के माध्यम से आप अपने भूत, वर्तमान और भविष्य के एक-एक क्षण का विस्तार से विश्लेषण प्राप्त कर सकते हैं!
क्या है ये जन्मपत्री ?
- यह आपकी जन्म कुंडली को दर्शाती है।
- जन्म कुंडली को अलग-अलग राशियों और ग्रहों सहित 12 भावों में बांटा जाता है।
- जिसमें जन्म विवरण के आधार पर ग्रह, नक्षत्र और राशि चक्र की स्थिति की संपूर्ण जानकारी होती है।
- इन्हीं भावों में स्थित राशियों और ग्रहों के आधार पर आपकी विशेषता, व्यक्तित्व, स्वभाव, ताकत और कमजोरियों का गहराई से विश्लेषण किया जाता है।
कैसे उपयोगी है जन्मपत्री ?
- आम आदमी के लिए अच्छी शिक्षा, अच्छा करियर, धन-दौलत, प्यार-प्रेम और एक सुखी वैवाहिक जीवन किसी सपने जैसा होता है।
- जन्मपत्री की सहायता से ही इन्हीं विभिन्न क्षेत्रों के संबंध में आपके जीवन के अच्छे, सामान्य और उत्तम समय की जानकारी मिलती है।
- आपकी जन्मपत्री उन सपनों को पूरा करने के लिए सही फैसले लेने में आपकी मदद करती है। जो केवल सपने ही नहीं आपके अधिकार भी हैं।
जन्मपत्री की जरुरत कब पड़ती है ?
- जीवन में उचित शिक्षा, करियर, जीवन साथी, निवेश संबंधी महत्वपूर्ण निर्णय लेने में जन्मकुंडली की भविष्यवाणी बहुत महत्वपूर्ण होती है।
- इसका उपयोग आप जीवन में कठिन समय का सामना करने और अच्छे समय का अधिक से अधिक लाभ उठाने के लिए भी कर सकते हैं।
क्या-क्या होगा आपकी जन्मपत्री में ?
- आपकी जन्मपत्री में आपका संपूर्ण ज्योतिषीय विवरण होगा।
- जन्म पंचांग विवरण के साथ भाग्यशाली अंक, अवकहड़ा चक्र, घात चक्र, निरयन ग्रह और अष्टक वर्ग का विवरण भी होगा।
- जन्म विवरण अनुसार सभी ग्रह, नक्षत्र और राशियों का 360° विश्लेषण कर विभिन्न प्रकार की जन्म कुण्डलियां जैसे सूर्य कुंडली, चंद्र कुंडली, अष्टक वर्ग, चलित कुंडली, होरा कुंडली व अलग-अलग अंशों की कुंडलियां भी होंगी।
- आपकी आयु,लिंग, शिक्षा और वैवाहिक स्थिति के अनुसार हस्त लिखित विस्तृत भविष्यफल तैयार किया जाता है।
- जिसमें आपके जीवन के शिक्षा, कैरियर/व्यवसाय, वित्त, प्रेम, विवाह, वैवाहिक जीवन, स्वास्थ्य और यात्रा संबंधी पहलुओं की विस्तृत जानकारी सारणी के रूप में दर्शायी जाएगी।
- जन्म कुंडली या जन्म पत्रिका में आपके जीवन में आने वाली विभिन्न प्रकार की दशाओं जैसे अंतर्दशा, महादशा, विमासोत्तरी दशा की समयावधि भी बताई जाएगी।
- आपकी जन्मपत्री के अनुसार आयु, लिंग, व्यवसाय, वैवाहिक स्थिति, महादशा, गोचर, महत्वपूर्ण योग, दोष आदि को ध्यान में रखते हुए रत्न उपाय भी बताये जायेंगे, जिन्हें धारण करने पर आप समस्याओं के छुटकारा पा सकते हैं।
Match Making / कुण्डली मिलान
कुंडली मिलान (Kundli Milan)
विवाह से पूर्व कुंडली मिलान करते समय आपने लोगों को यह कहते हुए सुना होगा कि “शादी-विवाह दो गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं है”। मनुष्य के जीवन में शादी एक बार ही होती है, इसीलिए लोग चाहते हैं उनकी ज़िन्दगी में जो जीवनसाथी आए वह सर्वगुण संपन्न हो। विवाह दो लोगों के बीच का एक संबंध है जो आने वाले 7 जन्मों तक उन्हें एक दूसरे के साथ जोड़ देता है। शादी चाहे लव हो या अरेंज, हमेशा कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जिनके पूरा होने के बाद ही शादी कराई जाती है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण होता है कुंडली मिलान। हमारे बड़े-बुज़ुर्गों और कुछ अनुभवी लोगों के अनुसार शादीशुदा ज़िन्दगी खुशहाल रहे इसके लिए विवाह से पूर्व कुंडली मिलान बेहद जरुरी है।
क्या है कुंडली मिलान ?
पुराने समय में ऋषि-मुनियों ने अपनी दूरदर्शिता और ज्ञान का उपयोग कर समाज के लिए सारे नियम बनाएं। इनमें से एक नियम है कुंडली मिलान। हमारी हिन्दू संस्कृति में शादी का बहुत महत्व है। आध्यात्मिक ग्रंथों के अनुसार कुंडली मिलान सुखद शादीशुदा जीवन का एक मार्ग बताया गया है। कुंडली मिलान भावी दूल्हा-दुल्हन की अनुकूलता और उनके सुखी व समृद्ध भविष्य को जानने का एक तरीका है। देखा जाए तो किसी भी व्यक्ति के विवाह के लिए कुंडली मिलान बेहद जरूरी होता है। यह एक प्रारंभिक कदम है जो वर-वधु के परिवार जनों द्वारा उठाया जाता है। कुछ लोगों का यह मानना है कि कुंडली मिलान के बिना एक अच्छे जीवन साथी की तलाश पूरी नहीं होती।
यह न केवल जोड़ी और शादी की अनुकूलता के बारे में बताता है बल्कि विवाह के बंधन में बंधने वाले दो अलग-अलग लोगों की आध्यात्मिक, शारीरिक और भावनात्मक अनुकूलता के बारे में भी जानकारी देता है। कुंडली मिलान से आप रिश्ते की स्थिरता और लम्बे उम्र की जानकारी गहराई से प्राप्त कर पाते हैं।
गुण मिलान का वास्तविक अर्थ
कुंडली मिलान में सबसे पहला कार्य गुण मिलान का होता है। किसी भी व्यक्ति की कुंडली में आठ तरह के गुणों और अष्टकूट का मिलान किया जाता है। शादी में गुण मिलान बेहद आवश्यक होता है। ये गुण है – वर्ण, वश्य, तारा, योनि, गृह मैत्री, गण, भकूट और नाड़ी । इन सब के मिलान के बाद कुल 36 अंक होते है। विवाह के समय यदि वर-वधु दोनों की कुंडली में 36 में से 18 गुण मिलते हैं तो यह माना जाता है कि शादी सफल रहेगी। ये 18 गुण स्वास्थ, दोष, प्रवृति, मानसिक स्थिति, संतान आदि से सम्बंधित होते हैं। चलिए आपको बताते हैं कि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शादी के लिए कितने गुण मिलना शुभ होता है और कितने अशुभ -
18 या इससे कम गुण मिलने पर | ज्योतिष की गणना के अनुसार 18 या इससे कम गुण मिलने पर ज्यादातर विवाह के असफल होने की संभावना होती है। |
18-24 गुण मिलने पर - | कुंडली मिलान में 18-24 गुण मिलने पर विवाह सफल तो होगी लेकिन इसमें समस्याएं आने की संभावना ज्यादा होती है। |
24-32 गुण मिलने पर | गुण मिलान में 24-32 गुण मिलने पर वैवाहिक जीवन के सफल होने की संभावना होती है। |
32 से 36 गुण मिलने पर | ज्योतिष के अनुसार इस तरह की शादी बहुत ही शुभ माने जाते हैं और इनमें ज्यादा समस्याएं उत्पन्न नहीं होती। |
आपको बता दें ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सफल शादी के लिए 36 में से 18 गुणों का मिलना अनिवार्य होता है।
विवाह के लिए कुंडली मिलान क्यों है जरूरी ?
हमारे समाज में हर तरह के लोग होते हैं कुछ जो आज की इस आधुनिक युग का हिस्सा हैं और उनके तौर तरीकों में पूरी तरह ढले हुए हैं तो वहीँ कुछ ऐसे भी हैं जो आधुनिक होने के साथ-साथ पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं को मानते हैं। हम सब जानते हैं कि ज्योतिष शास्त्र एक विज्ञान है. यह हमारी कुंडली मैं मौजूद ग्रहों, गुणों आदि की मदद से यह बताता है कि हमारा आने वाला भविष्य कैसा होगा ?
विवाह में कुंडली मिलान एक गणना जो हमें यह बताता है कि लड़का-लड़की के नक्षत्र और ग्रह आदि एक दूसरे के लिए अनुकूल हैं या नहीं। यदि लड़का और लड़की दोनों के नक्षत्र और गुण अनुकूल होते हैं तो उनका वैवाहिक जीवन खुशहाल रहता है, लेकिन वहीँ अगर दोनों के नक्षत्र प्रतिकूल होते हैं तो उनका वैवाहिक जीवन कष्टमय और क्लेश भरा गुजरता है। जो लोग ज्योतिष शास्त्र पर विश्वास नहीं करते हैं उनका मानना होता है कि विवाह के लिए कुंडली मिलान से ज्यादा जरूरी एक दूसरे के प्रति स्नेह, आपसी समझ और विश्वास की होती है।
कुंडली मिलान कैसे करें ?
आप शादी से पहले किसी ज्योतिष की मदद से कुंडली मिलान करवा सकते हैं। इसके लिए आपको वर-वधु का नाम, उनकी जन्म की तिथि, जन्मस्थान और जन्म का समय ज्योतिष को बताना होगा। ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत आपकी जन्म से जुड़ी हुई जानकरी जैसे तिथि, समय और स्थान की मदद से कुंडली बनते हैं। विवाह के समय वर वधु दोनों की कुंडलियों का अध्ययन करने के बाद यह पता लगाया जाता है कि उनका आने वाला जीवन कैसा रहेगा।
ध्यान रहे कि शादी एक जीवन भर का संबंध है तो किसी भी धोखेबाज़ों और राह चलते पंडितों के चक्कर में न पड़ें। हमेशा किसी सिद्ध ज्योतिषी की मदद से लड़का-लड़की का गुण मिलान करवाएँ। कुंडली मिलान के लिए आपके पास जन्म से जुड़ी हुई जानकरी जैसे तिथि, समय और स्थान होना आवश्यक होता है। जन्म दिनांक से कुंडली मिलान बहुत ही आसान हो जाता है।
...Question Horoscope / प्रश्न कुण्डली
प्रश्न कुण्डली क्या है ?
प्रश्न कुण्डली तात्कालिक समय के गोचर का नक्शा मात्र है। अचानक से बैठे बैठे मन में किसी इच्छा का जन्म हुआ, इस इच्छा की इच्छा का भविष्य क्या होगा. यह पूरी होगी या नहीं ? इस प्रकार की किसी भी समस्या का समाधान करने के लिये विशेष रूप से प्रश्न कुण्डली का प्रयोग किया जाता है। जिस समय किसी व्यक्ति के मन में कोई जिज्ञासा जागती है उसी समय को लेकर बनाई गई कुण्डली को प्रश्न कुण्डली का नाम दिया जाता है। प्रश्न कुण्डली को कार्यसिद्धि का नाम भी दिया जा सकता है। दैनिक जीवन में अनेक ऎसी घटनाएं होती है, जिन्हें जन्म कुण्डली से जानना संभव नहीं हो पाता है। इसका समाधान प्रश्न कुण्डली से किया जा सकता है।
प्रश्न कुण्डली की विशेषता
प्रश्न कुण्डली की यह विशेषता है कि इस कुण्डली के लिये जन्म समय की जानकारी होना आवश्यक नहीं है। इसके रहते जन्म समय में त्रुटियां या लग्न निर्धारण में कोई दुविधा नहीं होती है। इसलिये इसके लग्न का निर्धारण सरलता से हो जाता है। इसके अतिरिक्त इस में गोचर व दशा भी लगानी नहीं पडती है। सामान्यता: प्रश्न कुण्डली की आयु वार्षिक मानी गई है। प्रश्न कुण्डली में लग्न समय निश्चित होता है।
प्रश्न कुण्डली किस प्रकार काम करती है ?
प्रश्न कुण्डली में कार्य भाव और कार्येश की भूमिका अहम होती है। कार्य से यहां अर्थ उस विचार या इच्छा से है जिसके लिये प्रश्न कुण्डली का निर्माण किया गया है। जैसे: अगर कोई व्यक्ति यह जानना चाहता है कि क्या वह यात्रा करेगा. तो इस स्थिति में कार्यभाव तृ्तीय भाव हो गया। अब कार्येश को समझते है, कार्येश से अभिप्राय कुण्डली के उस भाव से है। जिससे संबन्धित प्रश्न किया गया है। इस प्रश्न में यात्रा के विषय में कहा गया है तो तृ्तीय भाव का स्वामी कार्येश हो गया। इस प्रकार प्रश्न कुण्डली में कार्य भाव और कार्येश का संबन्ध प्रश्न की सफलता दर्शाता है। इसी तरह प्रश्न कुण्डली में लग्न भाव सदैव प्रश्न कर्ता का प्रतिनिधित्व करता है। सप्तम भाव वह व्यक्ति या विषय वस्तु है, जिससे संबन्धित प्रश्न किया गया है। उस व्यक्ति की स्थिति को समझने के लिये सांतवें घर का विश्लेषण किया जाता है।
प्रश्न कुण्डली से व्यक्ति की चिन्ता की जानकारी प्राप्त करना
प्रश्न कर्ता की चिन्ताओं की जानकारी चन्द्रमा से देखी जा सकती है। प्रश्न कुण्डली में लग्न भाव में बली चन्द्र की स्थिति निवास चिन्ता, दूसरे भाव में धन, तीसरे भाव में घर से दूर रहने की चिन्ता, चौथे भाव में मकान/ पानी से संबधित परेशानी, पांचवे भाव में संतान, छठे भाव में ऋण, सांतवेंभाव में विवाह या साझेदारी, आंठवें भाव में पैतृक संम्पति में या अप्रयाशित लाभ, नवम भाव में चन्द्र लम्बी दूरी की यात्रा, दशम भाव में आजीविका, एकादश भाव में आय वृ्द्धि / पदोन्नति, द्वादश भाव में बली चन्द्र विदेश यात्रा से जुडी चिन्ताएं होने का संकेत देता है।
...Market Astro / तेजी मन्दी
शेयर बाजार में तेज़ी-मंदी के ज्योतिषीय कारण
शेयर बाजार का नाम आज के समय में लगभग हर कोई जानता है और काफी लोग इसमें निवेश करके अच्छा फायदा उठाते हैं। आज इस लेख में हम आपको बताने जा रहे हैं कि ऐसे क्या ज्योतिषीय तथ्य एवं कारण है जिनकी वजह से शेयर बाजार में तेजी या मंदी का दौर आता है।
सबसे पहले जानना आवश्यक है कि कौन सा ग्रह किस वस्तु को नियंत्रित करता है। इसके लिए आप निम्नलिखित विवरण को पढ़कर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं:
- सूर्य ग्रह :-
गुड़, सोना, चौपाये, सरसों, खांड, भूसा,लकड़ी, चना, मुनक्का, सरसों, हल्दी, दवाइयाँ, रंगीन वस्त्र, सरकारी ऋण पत्र, वृक्ष तथा रस वाली वस्तुएँ।
- चंद्र ग्रह :-
कपास, चाँदी, सफ़ेद रंग की वस्तुएँ, पारा, दूध एवं दूध से बने पदार्थ, मछली, फल, फूल, रसदार पदार्थ, सोडा वाटर, शीशा, बर्फ और चावल।
- मंगल ग्रह :-
ताँबा, सोना, लोहा एवं अन्य धातुएं, मशीनरी, चौपाये, गुड़, धनिया, हल्दी, गन्ना, मुनक्का, किशमिश, लौंग, सुपारी, किराना, लाल मिर्च, चाय, शराब, छुहारा, विभिन्न प्रकार के शेयर, मसूर, मोठ तथा गेहूं।
- बुध ग्रह :-
मूंगा,चाँदी, रेशम, रुई, शक्कर,फिरोजा, बाजरा, ज्वार, मटर, मूंग, अरहर, ग्वार, सौंफ, कपास, घी, काली खेसारी, पीली सरसों, अलसी, मूंगफली, अरंड, झूठ, रेशम, पाट, टेक्सटाइल, कागज और ताँबा।
- बृहस्पति ग्रह :-
सोना, चांदी, जवाहरात, जस्ता, हरड़, टिन, पाट, तम्बाकू, खांड, गुड़, आलू, अदरक, प्याज, बैंकों के शेयर, रबड़, नकली सिल्क और नमक।
- शुक्र ग्रह :-
रुई, चाँदी, श्रृंगार का सामान, सौंदर्य प्रसाधन, बारदाना, कपास, वस्त्र, हीरा, चीनी, रेशम, अरहर, सिल्क, सजावटी सामान, टैक्सटाइल शेयर, सोना तथा दवाएँ।
- शनि ग्रह :-
सरसों, अलसी, तिल, कोयला, तेल, यव, ऊन, सीसा, नीलम, तिलहन, काली मिर्च, खनिज, बारदाना, लोहा, जस्ता, संगमरमर, रांगा, कोयले, तेल, गैस तथा पेट्रोल से संबंधित शेयर, कल पुर्जे, चमड़े की चीजें, काले रंग की वस्तुएँ, कोलतार, टीन, सीसा, वाहन तथा गेहूँ।
- राहु :-
फ़ोन, तार, वायरलेस, टेलिफोन, एलुमिनियम, तथा बिजली का सामान।
जिस प्रकार उपरोक्त ग्रहों से संबंधित विशेष वस्तुएँ होती हैं, उसी प्रकार राशियां भी विशेष वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। तो आइए जानते हैं विभिन्न राशियों के द्वारा कौन-कौन सी वस्तुओं पर आधिपत्य किया गया है:
- मेष राशि :-
घी, चावल, मिर्च, ऊँट, अच्छा, औषधि तथा वस्त्र। शेयर:ऑटोमोबाइल, फार्मास्यूटिकल, डायग्नोस्टिक सेंटर, तांबा, क्रूड ऑयल, हॉस्पिटल, इंफ्रास्ट्रक्चर, जिप्सम, आयरन और स्टील, मसाले, तंबाकू, कैपिटल गुड्स, सीमेंट, हेल्थ केयर, शास्त्र, बारूद तथा धातु।
- वृषभ राशि :-
चावल, जौ, ऊनी वस्त्र, घोड़े, गाय, भैंस, तिल, धातुएं, रत्न तथा हीरा। शेयर: फाइनेंस, बैंकिंग, पेंट, इन्वेस्टमेंट, पर्यटन, गारमेंट, खिलौने, मीडिया, हॉस्पिटैलिटी, हीरा, एफएमसीजी, होटल, मनोरंजन, ज्वेलरी, परफ्यूम, इंश्योरेंस, चांदी, एग्रीकल्चर, कन्फेक्शनरी, कॉस्मेटिक्स तथा चीनी।
- मिथुन राशि :-
तुअर, बाजरा, लाख, शेयर, इत्र एवं सुगंधित द्रव्य, ज्वार, सोना, तेल तथा नमक। शेयर: पब्लिकेशन, मीडिया, एफएमसीजी, इंश्योरेंस, टेक्सटाइल, पेपर, टेलीकम्युनिकेशन, एक्सपोर्ट, आईटी, मोबाइल, इंटरनेट, कॉटन, कृषि उत्पाद तथा अनाज।
- कर्क राशि :-
गेहूं, चावल, खांड, चीनी, गुड़, सुण्ठी, सरसों, हींग, कपास, रेशमी वस्त्र तथा सेलडी। शेयर: पेट्रोलियम, दूध और दूध से बने डेयरी पदार्थ, तेल एवं गैस, चांदी, चावल, अल्मुनियम, मिनरल वाटर, जहाजरानी, कोल्ड ड्रिंक, पेपरमिंट तथा अल्कोहल।
- सिंह राशि :-
गुड़, उड़द, मसूर, मूंग, तेल, कम्बल, अलसी, चना, तिल, ऊन, घी तथा मूंगा। शेयर: सोना, बारूद, शास्त्र, मीडिया, बिजली, तांबा, कांसा, खतरनाक हथियार, परमाणु ऊर्जा, सल्फर, गेहूं और ग्रेफाइट।
- कन्या राशि :-
लहसुन, चावल, कपूर, अगर तगर, पन्ना, चन्दन, सोना, देवदारु तथा कंदमूल। शेयर: टेलीकम्युनिकेशन, इंश्योरेंस, मोबाइल, बैंकिंग, एफएमसीजी, मीडिया, टेक्सटाइल, फाइनेंस, पेपर, इंटरनेट, कृषि उत्पाद, कपास, एक्सपोर्ट तथा एविएशन।
- तुला राशि :-
सरसों, मिर्च, राई, सुपारी, जौ, तेल, गेहूं, मोठ, खजूर, चावल, घोड़ा तथा मूंग। शेयर: इन्वेस्टमेंट, चाँदी, तांबा, खिलौने, बैंकिंग, इंश्योरेंस, सुगंधित पदार्थ, सौंदर्य प्रसाधन, हीरा, कृषि, मनोरंजन और टूरिज़्म, ।
- वृश्चिक राशि :-
मोठ, लाख, सभी प्रकार के अन्न, गुड़, चावल, गुग्गल, पारा तथा हींग। शेयर: धातु, तांबा, डायग्नोस्टिक सेंटर,ऑटोमोबाइल, आरयन एवं स्टील, फार्मास्यूटिकल, रेडियम, परमाणु ऊर्जा, शस्त्र, तंबाकू, यूरेनियम, चिकित्सा उपकरण, इंफ्रास्ट्रक्चर, हेल्थ केयर, सीमेंट और जिप्सम।
- धनु राशि :-
कंदमूल, नमक, घी, अनाज, चावल, सेंधा नमक, सुरमा, घी तथा कपास। शेयर: बैंकिंग, एफएमसीजी, फाइनेंस, सरसों, गेहूं, इंश्योरेंस, सोना, कांसा, खाद्य तेल, जहाजरानी, गारमेंट्स, टैक्सटाइल और अनाज।
- मकर राशि :-
खजूर, अखरोट, इलाइची, चिरोंजी, घी, पिप्पली, जायफल, सुपारी तथा मूंग। शेयर: चमड़ा, धातु, कोयला, टीन, तेल एवं गैस, आयरन एंड स्टील, कृषि, पशु, खदान, फुटवियर, रियलिटी, सीमेंट, इंफ्रास्ट्रक्चर, जिप्सम और लाइमस्टोन।
- कुंभ राशि :-
जावित्री, नशे से सम्बंधित वस्तुएँ, देवदारु, धातुएं, तेल, भैंस, वाहन तथा नीलम। शेयर: यूरेनियम, एविएशन, चमड़ा, कृषि, कोल्ड ड्रिंक, सीमेंट, जिप्सम, तेल एवं गैस, पशु, धातु, रियलिटी, अल्कोहल, टेलीकम्युनिकेशन, चूना पत्थर, इंटरनेट, इंफ्रास्ट्रक्चर, कोयला, खदान, टीन और परमाणु ऊर्जा।
- मीन राशि :-
शक्कर, खांड, किराना, गुड़, घी, सुपारी, नारियल, तथा चावल। शेयर: फाइनेंस, बैंकिंग, इंश्योरेंस, एफएमसीजी, कोल्ड ड्रिंक, मिनरल वाटर, सरसों, गेहूं, अनाज, टेक्सटाइल, खाद्य तेल, अल्कोहल, फार्मास्यूटिकल, तेल एवं गैस, सोना, कांसा, गारमेंट और मीथेनॉल। ।
तेजी मंदी पर ग्रहों का विशेष प्रभाव
ऊपर दिए हुए ग्रहों और राशियों के आधार पर कौन सी वस्तु किस ग्रह और राशि के अंतर्गत आती है यह हम जान चुके हैं। अब तेजी मंदी का ज्ञान जानने के लिए हमें कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना होगा।
- जब सूर्य गोचर के दौरान वस्तु की राशि से तीसरे, छठे, दसवें और ग्यारहवें स्थान पर हो तो मंदी होती है और पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, आठवें, नवें स्थान पर होने से तेजी आती है।
- बृहस्पति वृद्धि कारक ग्रह है इसलिए बृहस्पति का गोचर काफी मायने रखता है। जब भी बृहस्पति का गोचर वस्तु की राशि से पहले, तीसरे, छठे, आठवें और बारहवें स्थान पर होता है तो उस गोचर के दौरान उस राशि के दामों में वृद्धि होती है अर्थात तेजी आती है। इसके विपरीत बृहस्पति का गोचर वस्तु की राशि से दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, नौवें, दसवें, और ग्यारहवें स्थान पर होता है, तो उस दौरान उस वस्तु के दामों में कमी अर्थात मंदी आती है।
- वस्तु की राशि से शनि गोचर में तीसरे, छठे, दसवें और ग्यारहवें स्थान पर हो तो मंदी होती है और पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, आठवें, नवें स्थान पर होने से तेजी आती है।
- इसी क्रम में बुध का गोचर पहले, तीसरे, चौथे, छठे, आठवें, नवें, और बारहवें स्थान पर होने से वस्तु के दामों में तेजी आती है तथा शेष भावों अर्थात दूसरे, पांचवें, सातवें, दसवें और ग्यारहवें भाव पर होने से वस्तु के दामों में मंदी आती है।
- पूर्ण चंद्रमा यदि वस्तु की राशि से पहले, तीसरे, छठे, आठवें और बारहवें स्थान पर होता है तो तेजी आती है तथा वस्तु की राशि से दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, नौवें, दसवें और ग्यारहवें स्थान पर होता है, तो उस दौरान मंदी आती है।
- वस्तु की राशि से मंगल गोचर में तीसरे, छठे, दसवें और ग्यारहवें स्थान पर हो तो मंदी होती है और पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, आठवें, नवें स्थान पर होने से तेजी आती है।
- यदि शुक्र गोचर की स्थिति पर नजर डाली जाए तो वस्तु की राशि से शुक्र के पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, नवें , दसवें, ग्यारहवें और बारहवें भाव में शुक्र का गोचर मंदी लाता है और इसके विपरीत छठे एवं सातवें स्थान पर शुक्र तेजी लेकर आता है।
- वस्तु की राशि से रहू गोचर में तीसरे, छठे, दसवें और ग्यारहवें स्थान पर हो तो मंदी होती है और पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, आठवें, नवें स्थान पर होने से तेजी आती है।
- इसी क्रम में केतु के गोचर के दौरान वस्तु की राशि से तीसरे, छठे, दसवें और ग्यारहवें स्थान पर होना मंदी का कारण बनता है और पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, आठवें, नवें स्थान पर होने से तेजी आती है।
ग्रहों की प्रकृति के अनुसार तेजी मंदी का ज्ञान
ग्रहों के गोचर के दौरान कुछ विशेष बातों का भी ध्यान रखा जाता है जैसे कि दो प्रकार के ग्रह होते हैं एक क्रूर ग्रह है और दूसरे स्वामी ग्रह। क्रूर ग्रहों में सूर्य, मंगल, शनि, राहु और केतु आते हैं जबकि सौम्य ग्रहों अंतर्गत बृहस्पति, बुध, शुक्र और चंद्रमा आते हैं।
- क्रूर ग्रह जब गोचरवश किसी सौम्य ग्रह की राशि पर आता है तब 12 अंश से 20 अंश तक मंदी करता है।
- इसके अतिरिक्त जब क्रूर ग्रह अपने मित्र सौम्य ग्रह की राशि पर आता है तब मंदी का कारण बनता है।
- क्रूर ग्रह जब किसी सम राशि (वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन राशि) पर गोचर करता है तब 12 अंश से 19-20 अंश तक की स्थिति के दौरान मंदी लाता है और इसके बाद तेजी का दौर शुरु होता है।
- वहीं इसके विपरीत जब कोई क्रूर ग्रह विषम राशि (मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुम्भ राशी)पर गोचर करता है तब 12 अंश से 19-20 अंश तक की स्थिति के दौरान तेजी लेकर आता है और उसके बाद मंदी करवाता है।
वार के अनुसार तेजी मंदी की स्थिति ज्ञात करना
ग्रहों एवं राशियों के अलावा प्रत्येक वार भी तेजी मंदी लाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान रखता है।
- यदि सोमवार को किसी वस्तु के दाम में तेजी होती है तो मंगलवार को उसके दाम में मंदी होती है। इसके विपरीत सोमवार को मंदी होने पर मंगलवार को तेजी होती है।
- यदि वस्तु मंगलवार को तेज हो तो बुधवार को मंदी होती है।
- यदि बुधवार के दिन मंदी है तो उस वस्तु में बृहस्पतिवार को तेजी अवश्य आती है।
- यदि बृहस्पतिवार के दिन बाजार में तेजी- मंदी का दौर हो तो वह शनिवार तक चलता है।
- यदि शुक्रवार के दिन तेजी हो तो बाद में मंदी होगी और यदि शुक्रवार को मंदी हो तो बाद में तेजी होगी।
- शनिवार को तेजी या मंदी हो तो बाजार में 1 सप्ताह तक तेज असर दिखाती है।
- यदि शनिवार को तेजी मंदी दोनों हो तो मंदी होने की संभावना अधिक होती है।
- यदि मंगलवार को तेजी हो और शनिवार को भी तेजी हो तो अगले मंगलवार तक तेजी बनी रहती है।
- इसके विपरीत यदि शनिवार को मंदी आ जाए तो तेजी रुकी रहेगी।
- रविवार के दिन जो वस्तु तेज होती है वह सोमवार को मंदी होती है और उसके विपरीत जो वस्तु रविवार को मंदी होती है तो वह सोमवार को तेज होती है। इस स्थिति में यदि सोमवार को मंदी ना आए तो मंगलवार का व्यापार देख कर कार्य किया जाना चाहिए।
- बृहस्पतिवार को मार्केट का रेट अगले बृहस्पतिवार भी लगभग वैसा ही रहता है।
शेयर बाजार में तेजी को जानने के कुछ अन्य तरीके
उपरोक्त स्थितियों के अलावा कुछ अन्य महत्वपूर्ण स्थितियाँ भी शेयर बाजार में तेजी लेकर आती हैं। ये स्थितियाँ निम्नलिखित हैं:
- गोचर के दौरान बुध ग्रह जब भी वक्री होता है तो तेजी की ओर इशारा करता है।
- इसी प्रकार जब गोचर में शनि वक्री होता है तो तेजी आने की संभावना बहुत बढ़ जाती है।
- यदि अमावस्या सोमवार और गुरुवार को पड़े तो मंदी आती है और यदि मंगलवार और शनिवार को आए तो तेजी लेकर आती है।
- जिस दिन संक्रांति होती है उस समय की कुंडली बनाने पर यदि सूर्य ग्रह शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होता है तो सूर्य से संबंधित राशि के प्रभाव में आने वाली वस्तुओं के बाजार भाव बढ़ जाते हैं।
- इसके विपरीत अशुभ ग्रहों से संबंध होने पर भाव घट जाते हैं।
- इसी क्रम में अमावस्या या पूर्णिमा को चंद्रमा शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट होता है तो चंद्र के नक्षत्रों के अधीन वस्तुओं के भाव बढ़ जाते हैं।
- इसके विपरीत यदि चंद्रमा अशुभ ग्रहों से युत हो अथवा दृष्ट हो तो वस्तुओं के भाव घट जाते हैं।
- ऐन्द्र, व्यतिपात और वैधृति योग जिस दिन होता है उस दिन भी शेयर बाजार में अच्छी तेजी देखने को मिलती है।
- सूर्य, चंद्र एवं बुध ग्रहों का जब जब भी क्रूर अथवा सौम्य ग्रहों से वेध होगा तो उसी अनुसार शेयर बाज़ार में तेजी तथा मंदी देखने को मिलती है।
- संक्रांति जिस दिन हो, उससे एक दिन पहले जो भाव रहा हो और यदि संक्रांति के दिन वह भाव मंदा हो जाए तो लगभग एक महीने तक तेजी रहती है।
- इसके विपरीत यदि एक दिन पहले वाले भाव से संक्रांति वाले दिन तेजी रहे तो फिर आने वाले एक महीने तक मंदी रहने की संभावना होती है।
इनके अतिरिक्त अन्य कई नियम है जो शेयर बाजार तथा व्यापार में तेजी मंदी के कारण बनते हैं।
हम आशा करते हैं कि हमारा यह लेख आपको पसंद आया होगा और यदि आप शेयर बाजार में निवेश करते हैं तो हमारा यह लेख आपको आवश्यक सहायता उपलब्ध कराएगा।
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